Pravachansar (Hindi). Gatha: 154.

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अथात्मनोऽन्यद्रव्यसंकीर्णत्वेऽप्यर्थनिश्चायकमस्तित्वं स्वपरविभागहेतुत्वेनोद्योतयति
तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खादं
जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ।।१५४।।
तं सद्भावनिबद्धं द्रव्यस्वभावं त्रिधा समाख्यातम्
जानाति यः सविकल्पं न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये ।।१५४।।
यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थनिश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्वभाव एव,
सद्भावनिबद्धत्वाद् द्रव्यस्वभावस्य अथासौ द्रव्यस्वभावो द्रव्यगुणपर्यायत्वेन स्थित्युत्पादव्ययत्वेन
च त्रितयीं विकल्पभूमिकामधिरूढः परिज्ञायमानः परद्रव्ये मोहमपोह्य स्वपरविभागहेतुर्भवति,
शुद्धात्मस्वरूपं न संभवन्तीति ।।१५३।। अथ स्वरूपास्तित्वलक्षणं परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स
परद्रव्ये मोहं न करोतीति प्रकाशयतिजाणदि जानाति जो यः कर्ता कम् तं पूर्वोक्तं दव्वसहावं
परमात्मद्रव्यस्वभावम् किंविशिष्टम् सब्भावणिबद्धं स्वभावः स्वरूपसत्ता तत्र निबद्धमाधीनं तन्मयं
३००प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अब, आत्माका अन्य द्रव्यके साथ संयुक्तपना होने पर भी अर्थ निश्चायक अस्तित्वको
स्वपर विभागके हेतुके रूपमें समझाते हैं :
अन्वयार्थ :[यः ] जो जीव [तं ] उस (पूर्वोक्त) [सद्भावनिबद्धं ]
अस्तित्वनिष्पन्न, [त्रिधा समाख्यातं ] तीन प्रकारसे कथित, [सविकल्पं ] भेदोंवाले
[द्रव्यस्वभावं ] द्रव्यस्वभावको [जानाति ] जानता है, [सः ] वह [अन्यद्रव्ये ] अन्य द्रव्यमें
[न मुह्यति ] मोहको प्राप्त नहीं होता
।।१५४।।
टीका :जो, द्रव्यको निश्चित करनेवाला, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व कहा गया
है वह वास्तवमें द्रव्यका स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्यका स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न (अस्तित्वका
बना हुआ) है
द्रव्यगुणपर्यायरूपसे तथा ध्रौव्यउत्पादव्ययरूपसे त्रयात्मक
भेदभूमिकामें आरूढ़ ऐसा यह द्रव्यस्वभाव ज्ञात होता हुआ, परद्रव्यके प्रति मोहको दूर करके
१. अर्थ निश्चायक = द्रव्यका निश्चय करनेवाला; (द्रव्यका निर्णय करनेका साधन जो स्वरूपास्तित्व है वह
स्व -परका भेद करनेमें साधनभूत है, इसप्रकार इस गाथामें समझाते हैं )
२. त्रयात्मक = तीनस्वरूप; तीनके समूहरूप (द्रव्यका स्वभाव द्रव्य, गुण और पर्याय ऐसे तीन भेदोंवाला
तथा ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय ऐसे तीन भेदोंवाला है )
अस्तित्वथी निष्पन्न द्रव्यस्वभावने त्रिविकल्पने
जे जाणतो, ते आतमा नहि मोह परद्रव्ये लहे. १५४
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