यत्खलु स्वलक्षणभूतं स्वरूपास्तित्वमर्थनिश्चायकमाख्यातं स खलु द्रव्यस्य स्वभाव एव, सद्भावनिबद्धत्वाद् द्रव्यस्वभावस्य । अथासौ द्रव्यस्वभावो द्रव्यगुणपर्यायत्वेन स्थित्युत्पादव्ययत्वेन च त्रितयीं विकल्पभूमिकामधिरूढः परिज्ञायमानः परद्रव्ये मोहमपोह्य स्वपरविभागहेतुर्भवति, शुद्धात्मस्वरूपं न संभवन्तीति ।।१५३।। अथ स्वरूपास्तित्वलक्षणं परमात्मद्रव्यं योऽसौ जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोतीति प्रकाशयति — जाणदि जानाति । जो यः कर्ता । कम् । तं पूर्वोक्तं दव्वसहावं परमात्मद्रव्यस्वभावम् । किंविशिष्टम् । सब्भावणिबद्धं स्वभावः स्वरूपसत्ता तत्र निबद्धमाधीनं तन्मयं
अब, आत्माका अन्य द्रव्यके साथ संयुक्तपना होने पर भी १अर्थ निश्चायक अस्तित्वको स्व – पर विभागके हेतुके रूपमें समझाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यः ] जो जीव [तं ] उस (पूर्वोक्त) [सद्भावनिबद्धं ] अस्तित्वनिष्पन्न, [त्रिधा समाख्यातं ] तीन प्रकारसे कथित, [सविकल्पं ] भेदोंवाले [द्रव्यस्वभावं ] द्रव्यस्वभावको [जानाति ] जानता है, [सः ] वह [अन्यद्रव्ये ] अन्य द्रव्यमें [न मुह्यति ] मोहको प्राप्त नहीं होता ।।१५४।।
टीका : — जो, द्रव्यको निश्चित करनेवाला, स्वलक्षणभूत स्वरूप – अस्तित्व कहा गया है वह वास्तवमें द्रव्यका स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्यका स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न (अस्तित्वका बना हुआ) है । द्रव्य – गुण – पर्यायरूपसे तथा ध्रौव्य – उत्पाद – व्ययरूपसे २त्रयात्मक भेदभूमिकामें आरूढ़ ऐसा यह द्रव्यस्वभाव ज्ञात होता हुआ, परद्रव्यके प्रति मोहको दूर करके १. अर्थ निश्चायक = द्रव्यका निश्चय करनेवाला; (द्रव्यका निर्णय करनेका साधन जो स्वरूपास्तित्व है वह
स्व -परका भेद करनेमें साधनभूत है, इसप्रकार इस गाथामें समझाते हैं ।) २. त्रयात्मक = तीनस्वरूप; तीनके समूहरूप (द्रव्यका स्वभाव द्रव्य, गुण और पर्याय ऐसे तीन भेदोंवाला
अस्तित्वथी निष्पन्न द्रव्यस्वभावने त्रिविकल्पने जे जाणतो, ते आतमा नहि मोह परद्रव्ये लहे. १५४.