Pravachansar (Hindi). Gatha: 163.

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क र्तृद्वारेण कर्तृप्रयोजकद्वारेण कर्त्रनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि, ममानेकपरमाणु-
द्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामस्याकर्तृरनेकपरमाणुद्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य
सर्वथा विरोधात
।।१६२।।
अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुदति
अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो य सयमसद्दो जो
णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि ।।१६३।।
अप्रदेशः परमाणुः प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः
स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ।।१६३।।
अयमत्रार्थःदेहोऽहं न भवामि कस्मात् अशरीरसहजशुद्धचैतन्यपरिणतत्वेन मम देहत्वविरोधात्
कर्ता वा न भवामि तस्य देहस्य तदपि कस्मात् निःक्रियपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन मम
देहकर्तृत्वविरोधादिति ।।१६२।। एवं कायवाङ्मनसां शुद्धात्मना सह भेदकथनरूपेण चतुर्थस्थले गाथात्रयं
गतम् इति पूर्वोक्तप्रकारेण ‘अत्थित्तणिच्छिदस्स हि’ इत्याद्येकादशगाथाभिः स्थलचतुष्टयेन प्रथमो
३१प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ताके प्रयोजक द्वारा या कर्ताके अनुमोदक द्वारा शरीरका कर्ता मैं
नहीं हूँ, क्योंकि मैं अनेक परमाणुद्रव्योंके एकपिण्ड पर्यायरूप परिणामका अकर्ता ऐसा मैं
अनेक परमाणुद्रव्योंके एकपिण्डपर्यायरूप
परिणामात्मक शरीरका कर्तारूप होनेमें सर्वथा
विरोध है ।।१६२।।
अब इस संदेहको दूर करते हैं कि ‘‘परमाणुद्रव्योंको पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती
है ?’’ :
अन्वयार्थ :[परमाणुः ] परमाणु [यः अप्रदेशः ] जो कि अप्रदेश है,
[प्रदेशमात्रः ] प्रदेशमात्र है [च ] और [स्वयं अशब्दः ] स्वयं अशब्द है, [स्निग्धः वा रूक्षः
वा ]
वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ [द्विप्रदेशादित्वम् अनुभवति ] द्विप्रदेशादिपनेका अनुभव
करता है
।।१६३।।
१. शरीर अनेक परमाणुद्रव्योंका एकपिण्डपर्यायरूप परिणाम है
परमाणु जे अप्रदेश, तेम प्रदेशमात्र, अशब्द छे,
ते स्निग्ध रूक्ष बनी प्रदेशद्वयादिवत्त्व अनुभवे. १६३
.