तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषसंबन्धोऽस्तीति नास्ति दोषः ।।१७४।। एवं शुद्धबुद्धैकस्वभाव- जीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, मूर्तिरहितजीवस्य मूर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण
वास्तवमें अरूपी आत्माका रूपी पदार्थोंके साथ कोई संबंध न होने पर भी अरूपीका रूपीके साथ संबंध होनेका व्यवहार भी विरोधको प्राप्त नहीं होता । जहाँ ऐसा कहा जाता है कि ‘आत्मा मूर्तिक पदार्थको जानता है’ वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्माका मूर्तिक पदार्थके साथ कोई संबंध नहीं है; उसका तो मात्र उस मूर्तिक पदार्थके आकाररूप होनेवाले ज्ञानके साथ ही संबंध है और उस पदार्थाकार ज्ञानके साथके संबंधके कारण ही ‘अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थको जानता है’ ऐसा अमूर्तिक – मूर्तिकका संबंधरूप व्यवहार सिद्ध होता है । इसीप्रकार जहाँ ऐसा कहा जाता है कि ‘अमुक आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बंध है’ वहाँ परमार्थतः अमूर्तिक आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है; आत्माका तो कर्मपुद्गल जिसमें निमित्त हैं ऐसे रागद्वेषादिभावोंके साथ ही सम्बन्ध (बंध) है और उन कर्मनिमित्तक रागद्वेषादि भावोंके साथ सम्बन्ध होनेसे ही ‘इस आत्माका मूर्तिक कर्मपुद्गलोंके साथ बंध है’ ऐसा अमूर्तिकमूर्तिकका बन्धरूप व्यवहार सिद्ध होता है
यद्यपि मनुष्यको स्त्री – पुत्र – धनादिके साथ वास्तवमें कोई सम्बन्ध नहीं है, वे उस मनुष्यसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि स्त्री – पुत्र – धनादिके प्रति राग करनेवाले मनुष्यको रागका बन्धन होनेसे और उस रागमें स्त्री – पुत्र – धनादिके निमित्त होनेसे व्यवहारसे ऐसा अवश्य कहा जाता है कि ‘इस मनुष्यको स्त्री – पुत्र – धनादिका बन्धन है; इसीप्रकार, यद्यपि आत्माका कर्मपुद्गलोंके साथ वास्तवमें कोई सम्बन्ध नहीं है, वे आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि रागद्वेषादि भाव करनेवाले आत्माको रागद्वेषादि भावोंका बन्धन होनेसे और उन भावोंमें कर्मपुद्गल निमित्त होनेसे व्यवहारसे ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि ‘इस आत्माको कर्मपुद्गलोंका बन्धन है’ ।।१७४।।