Pravachansar (Hindi). Gatha: 180.

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द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते, वैराग्यपरिणत एव; बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन
द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च, न मुच्यते रागपरिणतः; मुच्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन
द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते; ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य
साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः
।।१७९।।
अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतमरागविशिष्टत्वं सविशेषं प्रकटयति
परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो
असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ।।१८०।।
परिणामाद्बन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः
अशुभौ मोहप्रद्वेषौ शुभो वाशुभो भवति रागः ।।१८०।।
बध्नाति कर्म रक्त एव कर्म बध्नाति, न च वैराग्यपरिणतः मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा मुच्यते कर्मभ्यां
रागरहितात्मा मुच्यत एव शुभाशुभकर्मभ्यां रागरहितात्मा, न च बध्यते एसो बंधसमासो एष
प्रत्यक्षीभूतो बन्धसंक्षेपः जीवाणं जीवानां सम्बन्धी जाण णिच्छयदो जानीहि त्वं हे शिष्य, निश्चयतो
निश्चयनयाभिप्रायेणेति एवं रागपरिणाम एव बन्धकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन
विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वे निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।।१७९।। अथ जीवपरिणामस्य
३३८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्मसे मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है; रागपरिणत
जीव संस्पर्श करने (-सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे, और चिरसंचित (दीर्घकालसे
संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्मसे बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने
(सम्बन्धमें आने) वाले नवीन द्रव्यकर्मसे और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्मसे मुक्त ही होता
है, बँधता नहीं है; इससे निश्चित होता है कि
द्रव्यबन्धका साधकतम (-उत्कृष्ट हेतु) होनेसे
रागपरिणाम ही निश्चयसे बन्ध है ।।१७९।।
अब, परिणामका द्रव्यबन्धके साधकतम रागसे विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं
(अर्थात् परिणाम द्रव्यबन्धके उत्कृष्ट हेतुभूत रागसे विशेषतावाला होता है ऐसा भेद सहित प्रगट
करते हैं ) :
अन्वयार्थ :[परिणामात् बंधः ] परिणामसे बन्ध है, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः ]
(जो) परिणाम रागद्वेषमोहयुक्त है [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ ] (उनमेंसे) मोह और द्वेष अशुभ
परिणामथी छे बंध, रागविमोहद्वेषथी युक्त जे;
छे मोहद्वेष अशुभ, राग अशुभ वा शुभ होय छे. १८०.