शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति, ध्यानभावनारूपो न भवति । कस्मात् । ध्यानस्य
विनश्वरत्वादिति ।।१८१।। एवं द्रव्यबन्धकारणत्वात् मिथ्यात्वरागादिविकल्परूपो भावबन्ध एव निश्चयेन
भावार्थ : — परके प्रति प्रवर्तमान ऐसा शुभ परिणाम वह पुणयका कारण है औरअशुभ परिणाम वह पापका कारण है; इसलिये यदि कारणमें कार्यका उपचार किया जाय तो, शुभपरिणाम वह पुण्य है और अशुभ परिणाम वह पाप । स्वात्मद्रव्यमें प्रवर्तमान ऐसा शुद्धपरिणाम मोक्षका कारण है; इसलिये यदि कारणमें कार्यका उपचार किया जाय तो, शुद्ध परिणाम वह मोक्ष है ।।१८१।।
अब, जीवकी स्वद्रव्यमें प्रवृत्ति और परद्रव्यसे निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्व – परकाविभाग बतलाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अथ ] अब [स्थावराः च त्रसाः ] स्थावर और त्रसऐसे जो [पृथिवीप्रमुखाः ] पृथ्वी आदि [जीव निकायाः ] जीवनिकाय [भणिताः ] कहे गये हैं, [ते ] वे [जीवात् अन्ये ] जीवसे अन्य हैं, [च ] और [जीवः अपि ] जीव भी [तेभ्यः
स्थावर अने त्रस पृथ्वीआदिक जीवकाय कहेल जे, ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे. १८२.