Pravachansar (Hindi).

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आत्मनो हि शुद्ध आत्मैव सदहेतुकत्वेनानाद्यनन्तत्वात् स्वतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवो, न
किंचनाप्यन्यत शुद्धत्वं चात्मनः परद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चैकत्वात तच्च ज्ञानात्मक-
त्वाद्दर्शनभूतत्वादतीन्द्रियमहार्थत्वादचलत्वादनालम्बत्वाच्च तत्र ज्ञानमेवात्मनि बिभ्रतः स्वयं
दर्शनभूतस्य चातन्मयपरद्रव्यविभागेन स्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् तथा प्रतिनियतस्पर्शरस-
गन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहीण्यनेकानीन्द्रियाण्यतिक्रम्य सर्वस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहक-
स्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रव्यविभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्माविभागेन
स्वात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयनयबलेन पूर्वमपहाय निराकृत्य पश्चात् किं करोति णाणमहमेक्को
ज्ञानमहमेकः, सकलविमलकेवलज्ञानमेवाहं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितत्वेनैकश्च इदि जो झायदि
इत्यनेन प्रकारेण योऽसौ ध्यायति चिन्तयति भावयति क्क झाणे निजशुद्धात्मध्याने स्थितः सो अप्पाणं
हवदि झादा स आत्मानं भवति ध्याता स चिदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं ध्याता भवतीति ततश्च
परमात्मध्यानात्तादृशमेव परमात्मानं लभते तदपि कस्मात् उपादानकारणसद्दशं कार्यमिति वचनात्
ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभ इति ।।१९१।। अथ ध्रुवत्वाच्छुद्धात्मानमेव भावयेऽहमिति
विचारयति‘मण्णे’ इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियतेमण्णे मन्ये ध्यायामि सर्वप्रकारो-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
३५५
टीका :शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होनेसे अनादिअनन्त और स्वतःसिद्ध है,
इसलिये आत्माके शुद्धात्मा ही ध्रुव है, (उसके) दूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है आत्मा शुद्ध इसलिये
है कि उसे परद्रव्यसे विभाग (भिन्नत्व) और स्वधर्मसे अविभाग है इसलिये एकत्व है वह
एकत्व आत्माके (१) ज्ञानात्मकपनेके कारण, (२) दर्शनभूतपनेके कारण, (३) अतीन्द्रिय महा
पदार्थपनेके कारण, (४) अचलपनेके कारण, और (५) निरालम्बपनेके कारण है
इनमेंसे (१२) जो ज्ञानको ही अपनेमें धारण कर रखता है और जो स्वयं दर्शनभूत
है ऐसे आत्माका अतन्मय (ज्ञानदर्शन रहित ऐसा) परद्रव्यसे भिन्नत्व है और स्वधर्मसे
अभिन्नत्व है, इसलिये उसके एकत्व है; (३) और जो प्रतिनिश्चित स्पर्शरसगंधवर्णरूप
गुण तथा शब्दरूप पर्यायको ग्रहण करनेवाली अनेक इन्द्रियोंका अतिक्रम (उल्लंघन) करके,
समस्त स्पर्श
रसगंधवर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्यायको ग्रहण करनेवाला एक सत् महा
पदार्थ है, ऐसे आत्माका इन्द्रियात्मक परद्रव्यसे विभाग है, और स्पर्शादिके ग्रहणस्वरूप
(ज्ञानस्वरूप) स्वधर्मसे अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है, (४) और क्षणविनाशरूपसे
प्रवर्तमान ज्ञेयपर्यायोंको (प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली ज्ञातव्य पर्यायोंको) ग्रहण करने और छोड़नेका
१. सत् = विद्यमान; अस्तित्ववाला; होनेवाला
२. अहेतुक = जिसका कोई कारण नहीं है ऐसा; अकारण
३. प्रतिनिश्चित = प्रतिनियत (प्रत्येक इन्द्रिय अपनेअपने नियत विषयको ग्रहण करती है; जैसे चक्षु वर्णको
ग्रहण करती है )