चास्त्येकत्वम् । तथा क्षणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्यपर्यायग्रहणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मक-
परद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मक स्वधर्माविभागेन चास्त्येक त्वम् । तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्य-
द्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन
चास्त्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा, चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्मात्रनिरूपणात्मकत्वात् । अयमेक एव
च ध्रुवत्वादुपलब्धव्यः । किमन्यैरध्वनीनांगसंगच्छमानानेकमार्गपादपच्छायास्थानीयैरध्रुवैः ।।१९२।।
पादेयत्वेन भावये । स कः । अहं अहं कर्ता । कं कर्मतापन्नम् । अप्पगं सहजपरमाह्ना-----
दैकलक्षणनिजात्मानम् । किंविशिष्टम् । सुद्धं रागादिसमस्तविभावरहितम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । धुवं
टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन ध्रुवमविनश्वरम् । पुनरपि कथंभूतम् । एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं एवं
बहुविधपूर्वोक्तप्रकारेणाखण्डैकज्ञानदर्शनात्मकम् । पुनश्च किंरूपम् । अदिंदियं अतीन्द्रियं, मूर्तविनश्वरा-
नेकेन्द्रियरहितत्वेनामूर्ताविनश्वरेकातीन्द्रियस्वभावम् । पुनश्च कीद्रशम् । महत्थं मोक्षलक्षणमहापुरुषार्थ-
साधकत्वान्महार्थम् । पुनरपि किंस्वभावम् । अचलं अतिचपलचञ्चलमनोवाक्कायव्यापाररहितत्वेन
स्वस्वरूपे निश्चलं स्थिरम् । पुनरपि किंविशिष्टम् । अणालंबं स्वाधीनद्रव्यत्वेन सालम्बनं भरितावस्थमपि
समस्तपराधीनपरद्रव्यालम्बनरहितत्वेन निरालम्बनमित्यर्थः ।।१९२।। अथात्मनः पृथग्भूतं देहादिकम-अथात्मनः पृथग्भूतं देहादिकम-
३५६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अभाव होनेसे जो अचल है ऐसे आत्माको ज्ञेयपर्यायस्वरूप परद्रव्यसे विभाग है और
१तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अविभाग है, इसलिये उसके एकत्व है; (५) और
नित्यरूपसे प्रवर्तमान (शाश्वत ऐसा) ज्ञेयद्रव्योंके आलम्बनका अभाव होनेसे जो निरालम्ब है
ऐसे आत्माका ज्ञेय परद्रव्योंसे विभाग है और तन्निमित्तक ज्ञानस्वरूप स्वधर्मसे अविभाग है,
इसलिये उसके एकत्व है ।
इसप्रकार आत्मा शुद्ध है क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपणस्वरूप है
(अर्थात् चैतन्यमात्र शुद्धनय आत्माको मात्र शुद्ध ही निरूपित करता है ) । और यह एक ही
(यह शुद्धात्मा एक ही) ध्रुवत्वके कारण उपलब्ध करने योग्य है । किसी पथिकके शरीरके
अंगोंके साथ संसर्गमें आनेवाली मार्गके वृक्षोंकी अनेक छायाके समान अन्य जो अध्रुव
(-अन्य जो अध्रुव पदार्थ) उनसे क्या प्रयोजन है ?
भावार्थ : — आत्मा (१) ज्ञानात्मक, (२) दर्शनरूप, (३) इन्द्रियोंके विना ही
सबको जाननेवाला महा पदार्थ, (४) ज्ञेय – परपर्यायोंका ग्रहण – त्याग न करनेसे अचल और
(५) ज्ञेय – परद्रव्योंका आलम्बन न लेनेसे निरालम्ब है; इसलिये वह एक है ।
इसप्रकार एक होनेसे वह शुद्ध है । ऐसा शुद्धात्मा ध्रुव होनेसे, वही एक उपलब्ध करने
योग्य है ।।१९२।।
१. ज्ञेय पर्यायें जिसकी निमित्त हैं ऐसा जो ज्ञान, उस – स्वरूप स्वधर्मसे (ज्ञानस्वरूप निजधर्मसे) आत्माकी
अभिन्नता है ।