आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न किंचनाप्यन्यदसद्धेतुमत्त्वेनाद्यन्तवत्त्वात्परतःसिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव । अतोऽध्रुवं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोपलभे, शुद्धात्मानमुपलभे ध्रुवम् ।।१९३।। ध्रुवत्वान्न भावनीयमित्याख्याति — ण संति धुवा ध्रुवा अविनश्वरा नित्या न सन्ति । कस्य । जीवस्स जीवस्य । के ते । देहा वा दविणा वा देहा वा द्रव्याणि वा, सर्वप्रकारशुचिभूताद्देहरहितात्परमात्मनो
अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि अध्रुवपनेके कारण आत्माके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है : —
अन्वयार्थ : — [देहाः वा ] शरीर, [द्रविणानि वा ] धन, [सुखदुःखे ] सुख -दुःख [वा अथ ] अथवा [शत्रुमित्रजनाः ] शत्रुमित्रजन (यह कुछ) [जीवस्य ] जीवके [ध्रुवाः न सन्ति ] ध्रुव नहीं हैं; [ध्रुवः ] ध्रुव तो [उपयोगात्मकः आत्मा ] उपयोगात्मक आत्मा है ।।१९३।।
टीका : — जो परद्रव्यसे अभिन्न होनेके कारण और परद्रव्यके द्वारा १उपरक्त होनेवाले स्वधर्मसे भिन्न होनेके कारण आत्माको अशुद्धपनेका कारण है, ऐसा (आत्माके अतिरिक्त) दूसरा कोई भी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह २असत् और ३हेतुमान् होनेसे आदि – अन्तवाला और परतःसिद्ध है; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है । ऐसा होनेसे मैं उपलभ्यमान अध्रुव ऐसे शरीरादिको — वे उपलब्ध होने पर भी — उपलब्ध नहीं करता, और ध्रुव ऐसे शुद्धात्माको उपलब्ध करता हूँ ।।१९३।। १. उपरक्त = मलिन; विकारी [परद्रव्यके निमित्तसे आत्माका स्वधर्म उपरक्त होता है ।]] २. असत् = अस्तित्व रहित (अनित्य); [धन – देहादिक पुद्गल पर्याय हैं, इसलिये असत् हैं, इसीलिये
आदिअन्तवाली हैं ।]] ३. हेतुमान् = सहेतुक; जिसकी उत्पत्तिमें कोई भी निमित्त हो ऐसा । [देह – धनादिकी उत्पत्तिमें कोई भी निमित्त
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग – आत्मक जीव छे. १९३.