Pravachansar (Hindi). Gatha: 196.

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मोहग्रन्थिक्षपणाद्धि तन्मूलरागद्वेषक्षपणं; ततः समसुखदुःखस्य परममाध्यस्थलक्षणे
श्रामण्ये भवनं; ततोऽनाकुलत्वलक्षणाक्षयसौख्यलाभः अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षयसौख्यं
फलम् ।।१९५।।
अथैकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति
जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता
समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ।।१९६।।
अथ दर्शनमोहग्रन्थिभेदात्किं भवतीति प्रश्ने समाधानं ददातिजो णिहदमोहगंठी यः पूर्वसूत्रोक्त-
प्रकारेण निहतदर्शनमोहग्रन्थिर्भूत्वा रागपदोसे खवीय निजशुद्धात्मनिश्चलानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्र-
प्रतिबन्धकौ चरित्रमोहसंज्ञौ रागद्वेषौ क्षपयित्वा क्व सामण्णे स्वस्वभावलक्षणे श्रामण्ये पुनरपि किं
कृत्वा होज्जं भूत्वा किंविशिष्टः समसुहदुक्खो निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नरागादिविकल्पोपाधि-
रहितपरमसुखामृतानुभवेन सांसारिकसुखदुःखोत्पन्नहर्षविषादरहितत्वात्समसुखदुःखः सो सोक्खं अक्खयं
लहदि स एवंगुणविशिष्टो भेदज्ञानी सौख्यमक्षयं लभते ततो ज्ञायते दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहसंज्ञ-
रागद्वेषविनाशस्ततश्च सुखदुःखादिमाध्यस्थ्यलक्षणश्रामण्यययययेऽवस्थानं तेनाक्षयसुखलाभो भवतीति ।।१९५।।
अथ निजशुद्धात्मैकाग्ग्ग्ग्ग्र्र्र्र्रयलक्षणध्यानमात्मनोऽत्यन्तविशुद्धिं करोतीत्यावेदयतिजो खविदमोहकलुसो यः
क्षपितमोहकलुषः, मोहो दर्शनमोहः कलुषश्चारित्रमोहः, पूर्वसूत्रद्वयकथितक्रमेण क्षपितमोहकलुषौ येन
३६०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
[लभते ] प्राप्त क रता है ।।१९५।।
टीका :मोहग्रंथिका क्षय करनेसे, मोहग्रंथि जिसका मूल है ऐसे रागद्वेषका, क्षय
होता है; उससे (रागद्वेषका क्षय होनेसे), सुखदुःख समान हैं ऐसे जीवका परम मध्यस्थता
जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणतामें परिणमन होता है; और उससे (श्रामण्यमें परिणमनसे)
अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है
इससे (ऐसा कहा है कि) मोहरूपी ग्रंथिके छेदनसे अक्षय सौख्यरूप फल होता
।।१९५।।
अब, एकाग्रसंचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान आत्मामें अशुद्धता नहीं लाता ऐसा
निश्चित करते हैं :
१. एकाग्र = जिसका एक ही विषय (आलंबन) हो ऐसा
जे मोहमळ करी नष्ट, विषयविरक्त थई, मन रोकीने,
आत्मस्वभावे स्थित छे, ते आत्मने ध्यानार छे. १९६
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