Pravachansar (Hindi).

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यः क्षपितमोहकलुषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य
समवस्थितः स्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ।।१९६।।
आत्मनो हि परिक्षपितमोहकलुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्त्यभावाद्विषयविरक्तत्वं स्यात्;
ततोऽधिकरणभूतद्रव्यान्तराभावादुदधिमध्यप्रवृत्तैकपोतपतत्रिण इव अनन्यशरणस्य मनसो
निरोधः स्यात
्; ततस्तन्मूलचंचलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्वभावे समवस्थानं स्यात
तत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते अतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन
ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ।।१९६।।
स भवति क्षपितमोहकलुषः पुनरपि किंविशिष्टः विसयविरत्तो मोहकलुषरहितस्वात्मसंवित्तिसमुत्पन्न-
सुखसुधारसास्वादबलेन कलुषमोहोदयजनितविषयसुखाकाङ्क्षारहितत्वाद्विषयविरक्तः पुनरपि
कथंभूतः समवट्ठिदो सम्यगवस्थितः क्व सहावे निजपरमात्मद्रव्यस्वभावे किं कृत्वा पूर्वम् मणो
णिरुंभित्ता विषयकषायोत्पन्नविकल्पजालरूपं मनो निरुध्य निश्चलं कृत्वा सो अप्पाणं हवदि झादा
एवंगुणयुक्तः पुरुषः स्वात्मानं भवति ध्याता तेनैव शुद्धात्मध्यानेनात्यन्तिकीं मुक्तिलक्षणां शुद्धिं लभत
कहानजैनशास्त्रमाला ]ष्
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
३६१
प्र. ४६
अन्वयार्थ :[यः ] जो [क्षपितमोहकलुषः ] मोहमलका क्षय करके,
[विषयविरक्तः ] विषयसे विरक्त होकर, [मनः निरुध्य ] मनका निरोध करके, [स्वभावे
समवस्थितः ]
स्वभावमें समवस्थित है, [सः ] वह [आत्मानं ] आत्माका [ध्याता भवति ]
ध्यान करनेवाला है
।।१९६।।
टीका :जिसने मोहमलका क्षय किया है ऐसे आत्माके, मोहमल जिसका मूल है
ऐसी परद्रव्यप्रवृत्तिका अभाव होनेसे विषयविरक्तता होती है; (उससे अर्थात् विषय विरक्त
होनेसे), समुद्रके मध्यगत जहाजके पक्षीकी भाँति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरोंका अभाव होनेसे
जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मनका निरोध होता है (अर्थात् जैसे समुद्रके बीचमें
पहुँचे हुए किसी एकाकी जहाज पर बैठे हुए पक्षीको उस जहाजके अतिरिक्त अन्य किसी
जहाजका, वृक्षका या भूमि इत्यादिका आधार न होनेसे दूसरा कोई शरण नहीं है, इसलिये उसका
उड़ना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार विषयविरक्तता होनेसे मनको आत्मद्रव्यके अतिरिक्त किन्हीं
अन्यद्रव्योंका आधार नहीं रहता इसलिये दूसरा कोई शरण न रहनेसे मन निरोधको प्राप्त होता
है ); और इसलिये (अर्थात् मनका निरोध होनेसे), मन जिसका मूल है ऐसी चंचलताका विलय
होनेके कारण अनन्तसहज
चैतन्यात्मक स्वभावमें समवस्थान होता है वह स्वभावसमवस्थान
तो स्वरूपमें प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्र संचेतन होनेसे उसे ध्यान कहा जाता है
इससे (यह निश्चित हुआ कि) ध्यान, स्वभावसमवस्थानरूप होनेके कारण आत्मासे
१. परद्रव्य प्रवृत्ति = परद्रव्यमें प्रवर्तन २. समवस्थान = स्थिरतयादृढ़तया रहनाटिकना