निहतघनघातिकर्मतया मोहाभावे ज्ञानशक्तिप्रतिबन्धकाभावे च निरस्ततृष्णत्वात्प्रत्यक्षसर्वभाव-
तत्त्वज्ञेयान्तगतत्वाभ्यां च नाभिलषति, न जिज्ञासति, न सन्दिह्यति च; कुतोऽभिलषितो
जिज्ञासितः सन्दिग्धश्चार्थः । एवं सति किं ध्यायति ।।१९७।।
तृतीया चेत्यात्मोपलम्भफलकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् । अथोपलब्धशुद्धात्मतत्त्वसकलज्ञानी
अभाव होनेसे, (१) तृष्णा नष्ट की गई है तथा (२) समस्त पदार्थोंका स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा
ज्ञेयोंका पार पा लिया है, इसलिये भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते
और संदेह नहीं करते; तब फि र (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँसे
हो सकता है ? ऐसा है तब फि र वे क्या ध्याते हैं ?
भावार्थ : — लोकके (जगत्के सामान्य जीव समुदायके) मोहकर्मका सद्भाव होनेसे वह तृष्णा सहित है, इसलिये उसे इष्ट पदार्थकी अभिलाषा होती है; और उसके ज्ञानावरणीय कर्मका सद्भाव होनेसे वह बहुतसे पदार्थोंको तो जानता ही नहीं है तथा जिस पदार्थको जानता है उसे भी पृथक्करण पूर्वक — सूक्ष्मतासे — स्पष्टतासे नहीं जानता इसलिये उसे अज्ञात पदार्थको जाननेकी इच्छा (जिज्ञासा) होती है, और अस्पष्टतया जाने हुए पदार्थके संबंधमें संदेह होता है । ऐसा होनेसे उसके अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थका ध्यान संभवित होता है । परन्तु सर्वज्ञ भगवानके तो मोहकर्मका अभाव होनेसे वे तृष्णारहित हैं, इसलिये उनके अभिलाषा नहीं है; और उनके ज्ञानावरणीय कर्मका अभाव होनेसे वे समस्त पदार्थोंको जानते हैं तथा प्रत्येक पदार्थको अत्यन्त स्पष्टतापूर्वक — परिपूर्णतया जानते हैं इसलिये उन्हें जिज्ञासा या सन्देह नहीं है । इसप्रकार उन्हें किसी पदार्थके प्रति अभिलाषा, जिज्ञासा या सन्देह नहीं होता; तब फि र उन्हें किस पदार्थका ध्यान होता है ? ।।१९७।। १. अवच्छेदपूर्वक = पृथक्करण करके; सूक्ष्मतासे; विशेषतासे; स्पष्टतासे । २. अभिलषित = जिसकी इच्छा –