तत इममात्मानं युवां विमुंचतम्; अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनो-
ऽनादिजनकमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीररमण्या आत्मन्, अस्य जनस्यात्मानं न त्वं रमय-
स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति । अहो इदंजनशरीरपुत्रस्यात्मन्, अस्य जनस्यात्मनो
अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति । एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं
परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्गं पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति, तेन कारणेन मां मुञ्चत
यूयमिति क्षमितव्यं करोति । ततश्च किं करोति । परमचैतन्यमात्रनिजात्मतत्त्वसर्वप्रकारोपादेय-
अहो ! इस पुरुषके शरीरके जनक (पिता)के आत्मा ! अहो ! इस पुरुषके शरीरकी जननी (माता) के आत्मा ! इस पुरुषका आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है, ऐसा तुम निश्चयसे जानो । इसलिये तुम इस आत्माको छोड़ो । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनकके पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुषके शरीरकी रमणी (स्त्री)के आत्मा ! तू इस पुरुषके आत्माको रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चयसे जान । इसलिये तू इस आत्माको छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि – रमणीके पास जा रहा है । अहो ! इस पुरुषके शरीरके पुत्र आत्मा ! तू इस पुरुषके आत्माका जन्य (उत्पन्न किया गया – पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चयसे जान । इसलिये तू इस आत्माको छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्यके पास जा रहा है । — इसप्रकार बड़ोंसे, स्त्रीसे और पुत्रसे अपनेको छुड़ाता है ।
(यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो जीव मुनि होना चाहता है वह कुटुम्बसे सर्वप्रकारसे विरक्त ही होता है । इसलिये कुटुम्बकी सम्मतिसे ही मुनि होनेका नियम नहीं है । इसप्रकार कुटुम्बके भरोसे रहने पर तो, यदि कुटुम्ब किसीप्रकारसे सम्मति ही नहीं दे तो मुनि ही नहीं