Pravachansar (Hindi).

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आत्मानमेवात्मनोऽनादिबन्धुमुपसर्पति अहो इदंजनशरीरजनकस्यात्मन्, अहो इदंजनशरीर-
जनन्या आत्मन्, अस्य जनस्यात्मा न युवाभ्यां जनितो भवतीति निश्चयेन युवां जानीतं;
तत इममात्मानं युवां विमुंचतम्; अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनो-
ऽनादिजनकमुपसर्पति
अहो इदंजनशरीररमण्या आत्मन्, अस्य जनस्यात्मानं न त्वं रमय-
सीति निश्चयेन त्वं जानीहि; तत इममात्मानं विमुंच; अयमात्मा अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः
स्वानुभूतिमेवात्मनोऽनादिरमणीमुपसर्पति
अहो इदंजनशरीरपुत्रस्यात्मन्, अस्य जनस्यात्मनो
न त्वं जन्यो भवसीति निश्चयेन त्वं जानीहि; तत इममात्मानं विमुंच; अयमात्मा
अद्योद्भिन्नज्ञानज्योतिः आत्मानमेवात्मनोऽनादिजन्यमुपसर्पति
एवं गुरुकलत्रपुत्रेभ्य आत्मानं
बंधुवग्गं बन्धुवर्गं गोत्रम् ततः कथंभूतो भवति विमोचिदो विमोचितस्त्यक्तो भवति कैः कर्तृभूतैः
गुरुकलत्तपुत्तेहिं पितृमातृकलत्रपुत्रैः पुनरपि किं कृत्वा श्रमणो भविष्यति आसिज्ज आसाद्य आश्रित्य
कम् णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमिति अथ विस्तरःअहो बन्धुवर्ग-
पितृमातृकलत्रपुत्राः, अयं मदीयात्मा सांप्रतमुद्भिन्नपरमविवेकज्योतिस्सन् स्वकीयचिदानन्दैकस्वभावं
परमात्मानमेव निश्चयनयेनानादिबन्धुवर्गं पितरं मातरं कलत्रं पुत्रं चाश्रयति, तेन कारणेन मां मुञ्चत

यूयमिति क्षमितव्यं करोति
ततश्च किं करोति परमचैतन्यमात्रनिजात्मतत्त्वसर्वप्रकारोपादेय-
रुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिसमस्तपरद्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणस्वशक्त्यनवगूहनवीर्याचाररूपं
३७६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जानो इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूँ जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज
अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधुके पास जा रहा है
अहो ! इस पुरुषके शरीरके जनक (पिता)के आत्मा ! अहो ! इस पुरुषके शरीरकी
जननी (माता) के आत्मा ! इस पुरुषका आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्न) नहीं है, ऐसा तुम
निश्चयसे
जानो इसलिये तुम इस आत्माको छोड़ो जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह
आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनकके पास जा रहा है अहो ! इस पुरुषके शरीरकी
रमणी (स्त्री)के आत्मा ! तू इस पुरुषके आत्माको रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्चयसे जान
इसलिये तू इस आत्माको छोड़ जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी
स्वानुभूतिरूपी अनादिरमणीके पास जा रहा है अहो ! इस पुरुषके शरीरके पुत्र आत्मा ! तू
इस पुरुषके आत्माका जन्य (उत्पन्न किया गयापुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चयसे जान इसलिये
तू इस आत्माको छोड़ जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने
अनादि जन्यके पास जा रहा है इसप्रकार बड़ोंसे, स्त्रीसे और पुत्रसे अपनेको छुड़ाता है
(यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो जीव मुनि होना चाहता है वह कुटुम्बसे सर्वप्रकारसे
विरक्त ही होता है इसलिये कुटुम्बकी सम्मतिसे ही मुनि होनेका नियम नहीं है इसप्रकार
कुटुम्बके भरोसे रहने पर तो, यदि कुटुम्ब किसीप्रकारसे सम्मति ही नहीं दे तो मुनि ही नहीं