यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो निःशंकि तत्वनिःकांक्षितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढ-
जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो
लक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि
यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । अहो अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग-
मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्गं करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा
पूर्वोक्त प्रकारके वचन निकलते हैं । ऐसे वैराग्यके वचन सुनकर, कुटुम्बमें यदि कोई
(अब निम्न प्रकारसे पंचाचारको अंगीकार करता है :) (जिसप्रकार बंधुवर्गसे विदा ली, अपनेको बड़ोंसे, स्त्री और पुत्रसे छुड़ाया) उसीप्रकार — अहो काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन और तदुभयसंपन्न ज्ञानाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि ‘तू शुद्धात्माका नहीं है; तथापि मैं तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ । अहो निःशंकितत्व, निकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावनास्वरूप दर्शनाचार । मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ । अहो, मोक्षमार्गमें प्रवृत्तिके कारणभूत, पंचमहाव्रतसहित काय – वचन – मनगुप्ति और ईर्या – भाषा – एषण – आदाननिक्षेपण – प्रतिष्ठापनसमितिस्वरूप चारित्राचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ । अहो अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त પ્ર. ૪૮