ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्त म् — ‘‘जो सकलणयररज्जं पुव्वं चइऊण कुणइ
तपाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार
करता हूँ जब तक तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ ! अहो समस्त इतर (वीर्याचारके
अतिरिक्त अन्य) आचारमें प्रवृत्ति करानेवाली स्वशक्तिके अगोपनस्वरूप वीर्याचार ! मैं यह
निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब
तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ — इसप्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार,
(सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको जानता है – अनुभव करता है और अपनेको अन्य समस्त व्यवहारभावोंसे भिन्न जानता है । जबसे उसे स्व – परका विवेकस्वरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था तभी से वह समस्त विभावभावोंका त्याग कर चुका है और तभीसे उसने टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार किया है । इसलिये उसे न तो त्याग करनेको रहा है और न कुछ ग्रहण
— अंगीकार करनेको रहा है । स्वभावदृष्टिकी अपेक्षासे ऐसा होने पर भी, वह पर्यायमें पूर्वबद्ध कर्मोंके उदयके निमित्तसे अनेक प्रकारके विभावभावरूप परिणमित होता है । इस विभावपरिणतिको पृथक् होती न देखकर वह आकुल – व्याकुल भी नहीं होता और वह सकल विभावपरिणतिको दूर करनेका पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं करता । सकल विभावपरिणतिसे रहित स्वभावदृष्टिके बलस्वरूप पुरुषार्थसे गुणस्थानोंकी परिपाटीके सामान्य क्रमानुसार उसके प्रथम अशुभ परिणतिकी हानि होती है, और फि र धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है । ऐसा होनेसे वह शुभरागके उदयकी भूमिकामें गृहवासका और कुटुम्बका त्यागी होकर व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारको अंगीकार करता है । यद्यपि वह ज्ञानभावसे समस्त शुभाशुभ क्रियाओंका त्यागी है तथापि पर्यायमें शुभराग नहीं छूटनेसे वह पूर्वोक्तप्रकारसे पंचाचारको ग्रहण करता है ।) ।।२०२।।