Pravachansar (Hindi).

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शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात
शुद्धमात्मानमुपलभे अहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्यनिगूहनलक्षणवीर्याचार, न शुद्ध-
स्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमा-
त्मानमुपलभे एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति च ।।२०२।।
पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति, कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि-
ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति
तथाचोक्त म्‘‘जो सकलणयररज्जं पुव्वं चइऊण कुणइ
य ममत्तिं सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो’’ ।।२०२।। अथ जिनदीक्षार्थी भव्यो जैनाचार्य-
माश्रयतिसमणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपञ्चाचारस्याचरणाचारण-
प्रवीणत्वात् श्रमणम् गुणड्ढं चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकारणोत्तमनिजशुद्धात्मानुभूति-
गुणेनाढयं भृतं परिपूर्णत्वाद्गुणाढयम् कुलरूववयोविसिट्ठं लोकदुगुंच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं
३७८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गस्वरूप
तपाचार ! मैं यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्मा नहीं है तथापि तुझे तब तक अंगीकार
करता हूँ जब तक तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ ! अहो समस्त इतर (वीर्याचारके
अतिरिक्त अन्य) आचारमें प्रवृत्ति करानेवाली स्वशक्तिके अगोपनस्वरूप वीर्याचार ! मैं यह
निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं है, तथापि तुझे तब तक अंगीकार करता हूँ जब
तक कि तेरे प्रसादसे शुद्धात्माको उपलब्ध कर लूँ
इसप्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार,
तपाचार तथा वीर्याचारको अंगीकार करता है
(सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपको जानता हैअनुभव करता है और अपनेको अन्य
समस्त व्यवहारभावोंसे भिन्न जानता है जबसे उसे स्वपरका विवेकस्वरूप भेदविज्ञान प्रगट
हुआ था तभी से वह समस्त विभावभावोंका त्याग कर चुका है और तभीसे उसने टंकोत्कीर्ण
निजभाव अंगीकार किया है
इसलिये उसे न तो त्याग करनेको रहा है और न कुछ ग्रहण
अंगीकार करनेको रहा है स्वभावदृष्टिकी अपेक्षासे ऐसा होने पर भी, वह पर्यायमें
पूर्वबद्ध कर्मोंके उदयके निमित्तसे अनेक प्रकारके विभावभावरूप परिणमित होता है इस
विभावपरिणतिको पृथक् होती न देखकर वह आकुलव्याकुल भी नहीं होता और वह सकल
विभावपरिणतिको दूर करनेका पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं करता सकल विभावपरिणतिसे
रहित स्वभावदृष्टिके बलस्वरूप पुरुषार्थसे गुणस्थानोंकी परिपाटीके सामान्य क्रमानुसार उसके
प्रथम अशुभ परिणतिकी हानि होती है, और फि र धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है
ऐसा होनेसे वह शुभरागके उदयकी भूमिकामें गृहवासका और कुटुम्बका त्यागी होकर
व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारको अंगीकार करता है
यद्यपि वह ज्ञानभावसे समस्त शुभाशुभ
क्रियाओंका त्यागी है तथापि पर्यायमें शुभराग नहीं छूटनेसे वह पूर्वोक्तप्रकारसे पंचाचारको ग्रहण
करता है
) ।।२०२।।