Pravachansar (Hindi). Gatha: 203.

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अथातः कीदृशो भवतीत्युपदिशति
समणं गणिं गुणड्ढं कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं
समणेहिं तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो ।।२०३।।
श्रमणं गणिनं गुणाढयं कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम्
श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ।।२०३।।
ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति तथा हिआचरिताचारितसमस्त-
विरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणं, एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणत्वात् गुणाढयं,
भण्यते अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिज्ञापकं निर्ग्रन्थनिर्विकारं रूपमुच्यते शुद्धात्मसंवित्तिविनाशकारिवृद्ध-
बालयौवनोद्रेकजनितबुद्धिवैकल्यरहितं वयश्चेति तैः कुलरूपवयोभिर्विशिष्टत्वात् कुलरूपवयो-
विशिष्टम् इट्ठदरं इष्टतरं सम्मतम् कैः समणेहिं निजपरमात्मतत्त्वभावनासहितसमचित्तश्रमणैर-
न्याचार्यैः गणिं एवंविधगुणविशिष्टं परमात्मभावनासाधकदीक्षादायकमाचार्यम् तं पि पणदो न केवलं
तमाचार्यमाश्रितो भवति, प्रणतोऽपि भवति केन रूपेण पडिच्छ मं हे भगवन्, अनन्तज्ञानादि-
जिनगुणसंपत्तिकारणभूताया अनादिकालेऽत्यन्तदुर्लभाया भावसहितजिनदीक्षायाः प्रदानेन प्रसादेन मां
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
३७९
पश्चात् वह कैसा होता है इसका उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[श्रमणं ] जो श्रमण है, [गुणाढयं ] गुणाढय है, [कुलरूपवयो विशिष्टं ]
कुल, रूप तथा वयसे विशिष्ट है, और [श्रमणैः इष्टतरं ] श्रमणोंको अति इष्ट है [तम् अपि गणिनं ]
ऐसे गणीको [माम् प्रतीच्छ इति ] ‘मुझे स्वीकार करो’ ऐसा कहकर [प्रणतः ] प्रणत होता है
(-प्रणाम करता है ) [च ] और [अनुग्रहीतः ] अनुगृहीत होता है
।।२०३।।
टीका :पश्चात् श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है वह इसप्रकार है कि
आचरण करनेमें और आचरण करानेमें आनेवाली समस्त विरतिकी प्रवृत्तिके समान
आत्मरूपऐसे श्रामण्यपनेके कारण जो ‘श्रमण’ है; ऐसे श्रामण्यका आचरण करनेमें और
आचरण करानेमें प्रवीण होनेसे जो ‘गुणाढय’ है; सर्व लौकिकजनोंके द्वारा निःशंकतया सेवा करने
योग्य होनेसे और कुलक्रमागत (कुलक्रमसे उतर आनेवाले) क्रूरतादि दोषोंसे रहित होनेसे जो
. समान = तुल्य, बराबर, एकसा, मिलता हुआ [विरतिकी प्रवृत्तिके तुल्य आत्माका रूप अर्थात् विरतिकी
प्रवृत्तिसे मिलती हुईसमान आत्मदशा सो श्रामण्य है ।]
‘मुजने ग्रहो’ कही, प्रणत थई, अनुगृहीत थाय गणी वडे,
वयरूपकुलविशिष्ट, योगी, गुणाढय ने मुनिइष्ट जे. २०३.