पौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमणैरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भ-
प्रतीच्छ स्वीकुरु । चेदि अणुगहिदो न केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः स्वीकृतश्च भवति । हे भव्य, निस्सारसंसारे दुर्लभबोधिं प्राप्य निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म सफलं कुर्वित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः ।।२०३।। अथ गुरुणा स्वीकृतः सन् कीदृशो भवतीत्युपदिशति — णाहं होमि परेसिं नाहं भवामि परेषाम् । निजशुद्धात्मनः सकशात्परेषां भिन्नद्रव्याणां ‘कुलविशिष्ट है; अंतरंग शुद्धरूपका अनुमान करानेवाला बहिरंग शुद्धरूप होनेसे जो ‘रूपविशिष्ट’ है, बालकत्व और वृद्धत्वसे होनेवाली १बुद्धिविक्लवताका अभाव होनेसे तथा २यौवनोद्रेककी विक्रियासे रहित बुद्धि होनेसे जो ‘वयविशिष्ट’ है; और यथोक्त श्रामण्यका आचरण करने तथा आचरण कराने सम्बन्धी ३पौरुषेय दोषोंको निःशेषतया नष्ट कर देनेसे मुमुक्षुओंके द्वारा (प्रायश्चित्तादिके लिये) जिनका बहुआश्रय लिया जाता है इसलिये जो ‘श्रमणोंको अतिइष्ट’ है, ऐसे गणीके निकट — शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिके साधक आचार्यके निकट — ‘शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत करो’ ऐसा कहकर (श्रामण्यार्थी) जाता हुआ प्रणत होता है । ‘इस प्रकार यह तुझे शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सिद्धि’ ऐसा (कहकर) उस गणीके द्वारा (वह श्रामण्यार्थी) ४प्रार्थित अर्थसे संयुक्त किया जाता हुआ अनुगृहीत होता है ।।२०३।।
पश्चात् वह कैसा होता है, सो उपदेश करते हैं : — १. विक्लवता = अस्थिरता; विकलता । २. यौवनोद्रेक = यौवनका जोश, यौवनकी अतिशयता । ३. पौरुषेय = मनुष्यके लिये संभवित । ४. प्रार्थित अर्थ = प्रार्थना करके माँगी गई वस्तु ।