Pravachansar (Hindi). Gatha: 204.

< Previous Page   Next Page >


Page 380 of 513
PDF/HTML Page 413 of 546

 

background image
सकललौकिकजननिःशंक सेवनीयत्वात् कुलक्रमागतक्रौर्यादिदोषवर्जितत्वाच्च कुलविशिष्टं, अन्त-
रंगशुद्धरूपानुमापकबहिरंगशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्टं, शैशववार्धक्यकृ तबुद्धिविक्लवत्वाभावा-
द्यौवनोद्रेक विक्रि याविविक्त बुद्धित्वाच्च वयोविशिष्टं निःशेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषय-
पौरुषेयदोषत्वेन मुमुक्षुभिरभ्युपगततरत्वात
् श्रमणैरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भ-
साधकमाचार्यं शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धया मामनुगृहाणेत्युपसर्पन् प्रणतो भवति एवमियं ते
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्रार्थितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ।।२०३।।
अथातोऽपि कीदृशो भवतीत्युपदिशति
णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि
इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो ।।२०४।।
प्रतीच्छ स्वीकुरु चेदि अणुगहिदो न केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः स्वीकृतश्च भवति हे
भव्य, निस्सारसंसारे दुर्लभबोधिं प्राप्य निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म
सफलं कुर्वित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः
।।२०३।। अथ गुरुणा स्वीकृतः सन् कीदृशो
भवतीत्युपदिशतिणाहं होमि परेसिं नाहं भवामि परेषाम् निजशुद्धात्मनः सकशात्परेषां भिन्नद्रव्याणां
३८०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
‘कुलविशिष्ट है; अंतरंग शुद्धरूपका अनुमान करानेवाला बहिरंग शुद्धरूप होनेसे जो ‘रूपविशिष्ट’
है, बालकत्व और वृद्धत्वसे होनेवाली
बुद्धिविक्लवताका अभाव होनेसे तथा यौवनोद्रेककी
विक्रियासे रहित बुद्धि होनेसे जो ‘वयविशिष्ट’ है; और यथोक्त श्रामण्यका आचरण करने तथा
आचरण कराने सम्बन्धी
पौरुषेय दोषोंको निःशेषतया नष्ट कर देनेसे मुमुक्षुओंके द्वारा
(प्रायश्चित्तादिके लिये) जिनका बहुआश्रय लिया जाता है इसलिये जो ‘श्रमणोंको अतिइष्ट’ है,
ऐसे गणीके निकट
शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिके साधक आचार्यके निकट‘शुद्धात्मतत्त्वकी
उपलब्धिरूप सिद्धिसे मुझे अनुगृहीत करो’ ऐसा कहकर (श्रामण्यार्थी) जाता हुआ प्रणत होता
है
‘इस प्रकार यह तुझे शुद्धात्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सिद्धि’ ऐसा (कहकर) उस गणीके द्वारा
(वह श्रामण्यार्थी) प्रार्थित अर्थसे संयुक्त किया जाता हुआ अनुगृहीत होता है ।।२०३।।
पश्चात् वह कैसा होता है, सो उपदेश करते हैं :
१. विक्लवता = अस्थिरता; विकलता २. यौवनोद्रेक = यौवनका जोश, यौवनकी अतिशयता
३. पौरुषेय = मनुष्यके लिये संभवित ४. प्रार्थित अर्थ = प्रार्थना करके माँगी गई वस्तु
परनो न हुं, पर छे न मुज, मारुं नथी कंई पण जगे,
ए रीत निश्चित ने जितेंद्रिय साहजिकरूपधर बने. २०४.