Pravachansar (Hindi).

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आत्मनो हि तावदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजातरूप-
धरत्वप्रत्ययानां मोहरागद्वेषादिभावानां भवत्येवाभावः, तदभावात्तु तद्भावभाविनो निवसन-
भूषणधारणस्य मूर्धजव्यंजनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कार-
करणत्वस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितकेशश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च
भवत्येव, तदेतद्बहिरंग लिंगम्
तथात्मनो यथाजातरूपधरत्वापसारितायथाजातरूपधरत्वप्रत्यय-
मोहरागद्वेषादिभावानामभावादेव तद्भावभाविनो ममत्वकर्मप्रकमपरिणामस्य शुभाशुभोपरक्तो-
द्रव्यलिङ्गं ज्ञातव्यमिति प्रथमगाथा गता ।। मुच्छारंभविमुक्कं परद्रव्यकाङ्क्षारहितनिर्मोहपरमात्मज्योति-
र्विलक्षणा बाह्यद्रव्ये ममत्वबुद्धिर्मूर्च्छा भण्यते, मनोवाक्कायव्यापाररहितचिच्चमत्कारप्रतिपक्षभूत आरम्भो
व्यापारस्ताभ्यां मूर्च्छारम्भाभ्यां विमुक्तं मूर्च्छारम्भविमुक्त म्
जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं निर्विकारस्व-
संवेदनलक्षण उपयोगः, निर्विकल्पसमाधिर्योगः, तयोरुपयोगयोगयोः शुद्धिरुपयोगयोगशुद्धिस्तया
युक्त म्
ण परावेक्खं निर्मलानुभूतिपरिणतेः परस्य परद्रव्यस्यापेक्षया रहितं, न परापेक्षम् अपुणब्भवकारणं
पुनर्भवविनाशकशुद्धात्मपरिणामाविपरीतापुनर्भवस्य मोक्षस्य कारणमपुनर्भवकारणम् जेण्हं जिनस्य
संबन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं भवति किम् लिंगं भावलिङ्गमिति इति
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
३८३
[मूर्च्छारम्भवियुक्तम् ] मूर्च्छा (ममत्व) और आरम्भ रहित, [उपयोगयोगशुद्धिभ्यां
युक्तं ] उपयोग और योगकी शुद्धिसे युक्त तथा [न परापेक्षं ] परकी अपेक्षासे रहितऐसा
[जैनं ] जिनेन्द्रदेवकथित [लिंगम् ] (श्रामण्यका अंतरंग) लिंग है [अपुनर्भवकारणम् ] जो कि
मोक्षका कारण है
टीका :प्रथम तो अपनेसे, यथोक्तक्रमसे यथाजातरूपधर हुए आत्माके
अयथाजातरूपधरपनेके कारणभूत मोहरागद्वेषादिभावोंका अभाव होता ही है; और उनके
अभावके कारण, जो कि उनके सद्भावमें होते हैं ऐसे (१) वस्त्राभूषणका धारण, (२) सिर
और डाढ़ी
मूछोंके बालोंका रक्षण, (३) सकिंचनत्व, (४) सावद्ययोगसे युक्तता तथा (५)
शारीरिक संस्कारका करना, इन (पाँचों) का अभाव होता है; जिससे (उस आत्माके) (१)
जन्मसमयके रूप जैसा रूप, (२) सिर और डाढ़ी
मूछके बालोंका लोंच, (३) शुद्धत्व, (४)
हिंसादिरहितता तथा (५) अप्रतिकर्मत्व (शारीरिक श्रृंगारसंस्कारका अभाव) होता ही है
इसलिये यह बहिरंग लिंग है
और फि र, आत्माके यथाजातरूपधरपनेसे दूर किया गया जो अयथाजातरूपधरपना,
उसके कारणभूत मोहरागद्वेषादिभावोंका अभाव होनेसे ही जो उनके सद्भावमें होते हैं ऐसे जो
१. यथाजातरूपधर = (आत्माका) सहजरूप धारण करनेवाला
२. अयथाजातरूपधर = (आत्माका) असहजरूप धारण करनेवाला
३. सकिंचन = जिसके पास कुछ भी (परिग्रह) हो ऐसा