Pravachansar (Hindi). Gatha: 207.

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पयोगतत्पूर्वकतथाविधयोगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यसापेक्षत्वस्य चाभावान्मूर्च्छारम्भवियुक्तत्व-
मुपयोगयोगशुद्धियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव, तदेतदन्तरंग लिंगम्
।।२०५२०६।।
अथैतदुभयलिंगमादायैतदेतत्कृत्वा च श्रमणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छन-
क्रियादिशेषसकलक्रियाणां चैककर्तृकत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपदिशति
आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता
सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो ।।२०७।।
आदाय तदपि लिङ्गं गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य
श्रुत्वा सव्रतां क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ।।२०७।।
द्रव्यलिङ्गभावलिङ्गस्वरूपं ज्ञातव्यम् ।।२०५२०६।। अथैतलिङ्गद्वैतमादाय पूर्वं भाविनैगमनयेन यदुक्तं
पञ्चाचारस्वरूपं तदिदानीं स्वीकृत्य तदाधारेणोपस्थितः स्वस्थो भूत्वा श्रमणो भवतीत्याख्यातिआदाय
तं पि लिंगं आदाय गृहीत्वा तत्पूर्वोक्तं लिङ्गद्वयमपि क थंभूतम् दत्तमिति क्रि याध्याहारः के न दत्तम्
३८४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(१) ममत्वके और कर्मप्रक्रमके परिणाम, (२) शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक
तथाविध योगकी अशुद्धिसे युक्तता तथा (३) परद्रव्यसे सापेक्षता; इस (तीनों) का अभाव
होता है; इसलिये (उस आत्माके) (१) मूर्छा और आरम्भसे रहितता, (२) उपयोग और
योगकी शुद्धिसे युक्तता तथा (३) परकी अपेक्षासे रहितता होती ही है
इसलिये यह अंतरंग
लिंग है ।।२०५२०६।।
अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके और इतनाइतना करके श्रमण होता
हैइसप्रकार भवतिक्रियामें, बंधुवर्गसे विदा लेनेरूप क्रियासे लेकर शेष सभी क्रियाओंका
एक कर्ता दिखलाते हुए, इतनेसे (अर्थात् इतना करनेसे) श्रामण्यकी प्राप्ति होती है, ऐसा उपदेश
करते हैं :
अन्वयार्थ :[परमेण गुरुणा ] परम गुरुके द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम् ] उन दोनों
लिंगोंको [आदाय ] ग्रहण करके, [सं नमस्कृत्य ] उन्हें नमस्कार करके [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा ]
व्रत सहित क्रियाको सुनकर [उपस्थितः ] उपस्थित (आत्माके समीप स्थित) होता हुआ
[सः ] वह [श्रमणः भवति ] श्रमण होता है
।।२०७।।
१. कर्मप्रक्रम = कामको अपने ऊ पर लेना; काममें युक्त होना, कामकी व्यवस्था
२. तत्पूर्वक = उपरक्त (मलिन) उपयोगपूर्वक ३. भवतिक्रिया = होनेरूप क्रिया
ग्रही परमगुरुदीधेल लिंग, नमस्करण करी तेमने,
व्रत ने क्रिया सुणी, थई उपस्थित, थाय छे मुनिराज ए. २०७.