मुपयोगयोगशुद्धियुक्तत्वमपरापेक्षत्वं च भवत्येव, तदेतदन्तरंग लिंगम् ।।२०५।२०६।।
अथैतदुभयलिंगमादायैतदेतत्कृत्वा च श्रमणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छन- क्रियादिशेषसकलक्रियाणां चैककर्तृकत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपदिशति —
होता है; इसलिये (उस आत्माके) (१) मूर्छा और आरम्भसे रहितता, (२) उपयोग और
योगकी शुद्धिसे युक्तता तथा (३) परकी अपेक्षासे रहितता होती ही है । इसलिये यह अंतरंग
अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगोंको ग्रहण करके और इतना – इतना करके श्रमण होता है — इसप्रकार ३भवतिक्रियामें, बंधुवर्गसे विदा लेनेरूप क्रियासे लेकर शेष सभी क्रियाओंका एक कर्ता दिखलाते हुए, इतनेसे (अर्थात् इतना करनेसे) श्रामण्यकी प्राप्ति होती है, ऐसा उपदेश करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [परमेण गुरुणा ] परम गुरुके द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम् ] उन दोनों लिंगोंको [आदाय ] ग्रहण करके, [सं नमस्कृत्य ] उन्हें नमस्कार करके [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा ] व्रत सहित क्रियाको सुनकर [उपस्थितः ] उपस्थित (आत्माके समीप स्थित) होता हुआ [सः ] वह [श्रमणः भवति ] श्रमण होता है ।।२०७।। १. कर्मप्रक्रम = कामको अपने ऊ पर लेना; काममें युक्त होना, कामकी व्यवस्था । २. तत्पूर्वक = उपरक्त (मलिन) उपयोगपूर्वक । ३. भवतिक्रिया = होनेरूप क्रिया ।