रोहति । ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यव-
निर्विकल्पसमाधिबलेन कायमुत्सृज्योपस्थितो भवति । ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्यां सत्यां परिपूर्ण- श्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले एक महाव्रतको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा समयमें परिणमित होते हुए आत्माको जानता हुआ १सामायिकमें आरूढ़ होता है । पश्चात् २प्रतिक्रमण – आलोचना – प्रत्याख्यान – स्वरूप क्रियाको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा त्रैकालिक कर्मोंसे विविक्त (भिन्न) किये जानेवाले आत्माको जानता हुआ, अतीत – अनागत – वर्तमान, मन – वचन – कायसंबंधी कर्मोंसे विविक्तता (भिन्नता)में आरूढ़ होता है । पश्चात् समस्त सावद्य कर्मोंके ३आयतनभूत कायका उत्सर्ग (उपेक्षा) करके यथाजातरूपवाले स्वरूपको, एकको एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ, उपस्थित होता है । और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समदृष्टिपनेके कारण साक्षात् श्रमण होता है ।।२०७।।
अविच्छिन्न सामायिकमें आरूढ़ हुआ होने पर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनाके योग्य है, ऐसा अब उपदेश करते हैं : — १. समयमें (आत्मद्रव्यमें, निजद्रव्यस्वभावमें) परिणमित होना सो सामायिक है २. अतीत – वर्तमान – अनागत काय – वचन – मनसंबंधी कर्मोंसे भिन्न निजशुद्धात्मपरिणति वह प्रतिक्रमण –
नहि स्नान – दातण, एक भोजन, भूशयन, स्थितिभोजनं. २०८.