मधिरोहति । ततः प्रतिक्रमणालोचनप्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन त्रैकालिक-
कर्मभ्यो विविच्यमानमात्मानं जानन्नतीतप्रत्युत्पन्नानुपस्थितकायवाङ्मनःकर्मविविक्त त्वमधि-
रोहति । ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यव-
तिष्ठमान उपस्थितो भवति । उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात् साक्षाच्छ्रमणो भवति ।।२०७।।
अथाविच्छिन्नसामायिकाधिरूढोऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमर्हतीत्युपदिशति —
वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं ।
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ।।२०८।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता ।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ।।२०९।। [जुम्मं]
निर्विकल्पसमाधिबलेन कायमुत्सृज्योपस्थितो भवति । ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्यां सत्यां परिपूर्ण-
श्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले
३८६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
एक महाव्रतको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा समयमें परिणमित होते हुए आत्माको जानता हुआ
१सामायिकमें आरूढ़ होता है । पश्चात् २प्रतिक्रमण – आलोचना – प्रत्याख्यान – स्वरूप क्रियाको
सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा त्रैकालिक कर्मोंसे विविक्त (भिन्न) किये जानेवाले आत्माको जानता
हुआ, अतीत – अनागत – वर्तमान, मन – वचन – कायसंबंधी कर्मोंसे विविक्तता (भिन्नता)में
आरूढ़ होता है । पश्चात् समस्त सावद्य कर्मोंके ३आयतनभूत कायका उत्सर्ग (उपेक्षा) करके
यथाजातरूपवाले स्वरूपको, एकको एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ, उपस्थित होता
है । और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समदृष्टिपनेके कारण साक्षात् श्रमण होता है ।।२०७।।
अविच्छिन्न सामायिकमें आरूढ़ हुआ होने पर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनाके
योग्य है, ऐसा अब उपदेश करते हैं : —
१. समयमें (आत्मद्रव्यमें, निजद्रव्यस्वभावमें) परिणमित होना सो सामायिक है
२. अतीत – वर्तमान – अनागत काय – वचन – मनसंबंधी कर्मोंसे भिन्न निजशुद्धात्मपरिणति वह प्रतिक्रमण –
आलोचना – प्रत्याख्यानरूप किया है । ३. आयतन = स्थान, निवास ।
व्रत, समिति, लुंचन, आवश्यक, अणचेल, इन्द्रियरोधनं,
नहि स्नान – दातण, एक भोजन, भूशयन, स्थितिभोजनं. २०८.
– आ मूळगुण श्रमणो तथा जिनदेवथी प्रज्ञप्त छे,
तेमां प्रमत्त थतां श्रमण छेदोपस्थापक थाय छे. २०९.