Pravachansar (Hindi). Gatha: 208-209.

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मधिरोहति ततः प्रतिक्रमणालोचनप्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन त्रैकालिक-
कर्मभ्यो विविच्यमानमात्मानं जानन्नतीतप्रत्युत्पन्नानुपस्थितकायवाङ्मनःकर्मविविक्त त्वमधि-
रोहति
ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यव-
तिष्ठमान उपस्थितो भवति उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात् साक्षाच्छ्रमणो भवति ।।२०७।।
अथाविच्छिन्नसामायिकाधिरूढोऽपि श्रमणः कदाचिच्छेदोपस्थापनमर्हतीत्युपदिशति
वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ।।२०८।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ।।२०९।। [जुम्मं]
निर्विकल्पसमाधिबलेन कायमुत्सृज्योपस्थितो भवति ततश्चैवं परिपूर्णश्रमणसामग्यां सत्यां परिपूर्ण-
श्रमणो भवतीत्यर्थः ।।२०७।। एवं दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले
३८६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
एक महाव्रतको सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा समयमें परिणमित होते हुए आत्माको जानता हुआ
सामायिकमें आरूढ़ होता है पश्चात् प्रतिक्रमणआलोचनाप्रत्याख्यानस्वरूप क्रियाको
सुननेरूप श्रुतज्ञानके द्वारा त्रैकालिक कर्मोंसे विविक्त (भिन्न) किये जानेवाले आत्माको जानता
हुआ, अतीत
अनागतवर्तमान, मनवचनकायसंबंधी कर्मोंसे विविक्तता (भिन्नता)में
आरूढ़ होता है पश्चात् समस्त सावद्य कर्मोंके आयतनभूत कायका उत्सर्ग (उपेक्षा) करके
यथाजातरूपवाले स्वरूपको, एकको एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ, उपस्थित होता
है
और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समदृष्टिपनेके कारण साक्षात् श्रमण होता है ।।२०७।।
अविच्छिन्न सामायिकमें आरूढ़ हुआ होने पर भी श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनाके
योग्य है, ऐसा अब उपदेश करते हैं :
१. समयमें (आत्मद्रव्यमें, निजद्रव्यस्वभावमें) परिणमित होना सो सामायिक है
२. अतीत
वर्तमानअनागत कायवचनमनसंबंधी कर्मोंसे भिन्न निजशुद्धात्मपरिणति वह प्रतिक्रमण
आलोचनाप्रत्याख्यानरूप किया है ३. आयतन = स्थान, निवास
व्रत, समिति, लुंचन, आवश्यक, अणचेल, इन्द्रियरोधनं,
नहि स्नान
दातण, एक भोजन, भूशयन, स्थितिभोजनं. २०८.
आ मूळगुण श्रमणो तथा जिनदेवथी प्रज्ञप्त छे,
तेमां प्रमत्त थतां श्रमण छेदोपस्थापक थाय छे. २०९.