Pravachansar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
३९१

द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरंगोऽन्तरंगश्च तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरंगः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमार- ब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरंगच्छेदवर्जितत्वादा- लोचनपूर्विकया क्रिययैव प्रतीकारः यदा तु स एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रययालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसन्धानम् ।।२११।२१२।। स्थानादिप्रारब्धायाम् तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया तदाकाले तस्य तपोधनस्य स्वस्थभावस्य बहिरङ्गसहकारिकारणभूता प्रतिक्रमणलक्षणालोचनपूर्विका पुनः क्रियैव प्रायश्चित्तं प्रतिकारो भवति, न चाधिकम् कस्मादिति चेत् अभ्यन्तरे स्वस्थभावचलनाभावादिति प्रथमगाथा गता छेदपउत्तो समणो छेदे प्रयुक्तः श्रमणो, निर्विकारस्वसंवित्तिभावनाच्युतिलक्षणच्छेदेन यदि चेत् प्रयुक्तः सहितः श्रमणो भवति समणं ववहारिणं जिणमदम्हि श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते, तदा जिनमते व्यवहारज्ञं प्रायश्चित्तकुशलं श्रमणं आसेज्ज आसाद्य प्राप्य, न केवलमासाद्य आलोचित्ता निःप्रपञ्चभावेनालोच्य दोषनिवेदनं कृत्वा उवदिट्ठं तेण कायव्वं उपदिष्टं तेन कर्तव्यम् तेन प्रायश्चित्त- परिज्ञानसहिताचार्येण निर्विकारस्वसंवित्तिभावनानुकूलं यदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्र- तात्पर्यम् ।।२११।२१२।। एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा, तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थं गाथाद्वय- है तो [तस्य पुनः ] उसे तो [आलोचनापूर्विका क्रिया ] आलोचनापूर्वक क्रिया करना चाहिये

[श्रमणः छेदोपयुक्तः ] (किन्तु) यदि श्रमण छेदमें उपयुक्त हुआ हो तो उसे [जिनमत ] जैनमतमें [व्यवहारिणं ] व्यवहारकुशल [श्रमणं आसाद्य ] श्रमणके पास जाकर [आलोच्य ] आलोचना करके (अपने दोषका निवेदन करके), [तेन उपदिष्टं ] वे जैसा उपदेश दें वह [कर्तव्यम् ] करना चाहिये ।।२११ -२१२।।

टीका :संयमका छेद दो प्रकारका है; बहिरंग और अन्तरंग उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी वह बहिरंग है और उपयोग संबंधी वह अन्तरंग है उसमें, यदि भलीभाँति उपर्युक्त श्रमणके प्रयत्नकृत कायचेष्टाका कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छेदसे रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसंबंधी छेद होनेसे साक्षात् छेदमें ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधिमें कुशल श्रमणके आश्रयसे, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा (संयमका) प्रतिसंधान होता है १. आलोचना = सूक्ष्मतासे देख लेना वह, सूक्ष्मतासे विचारना वह, ठीक ध्यानमें लेना वह २. निवेदन; कथन [२११ वीं गाथामें आलोचनाका प्रथम अर्थ घटित होता है और २१२ वीं में दूसरा ]