भावार्थ : — यदि मुनिके स्वस्थभावलक्षण प्रयत्न सहित की जानेवाली अशन – शयन – गमनादिक शारीरिक चेष्टासंबंधी छेद होता है तो उस तपोधनके स्वस्थभावकी बहिरंग सहकारीकारणभूत प्रतिक्रमणस्वरूप आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार – प्रायश्चित्त हो जाता है, क्योंकि वह स्वस्थभावसे चलित नहीं हुआ है । किन्तु यदि उसके निर्विकार स्वसंवेदनभावनासे च्युतिस्वरूप छेद होता है, तो उसे जिनमतमें व्यवहारज्ञ – प्रायश्चित्तकुशल – आचार्यके निकट जाकर, निष्पप्रंचभावसे दोषका निवेदन करके, वे आचार्य निर्विकार स्वसंवेदनभावनाके अनुकूल जो कुछ भी प्रायश्चित्त उपदेशें वह करना चाहिये ।।२११ – २१२।।
अब, श्रामण्यके छेदके आयतन होनेसे १परद्रव्य – प्रतिबंध निषेध करने योग्य हैं, ऐसा उपदेश करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अधिवासे ] अधिवासमें (आत्मवासमें अथवा गुरुओंके सहवासमें) वसते हुए [वा ] या [विवासे ] विवासमें (गुरुओंसे भिन्न वासमें) वसते हुए, [नित्यं ] सदा [निबंधान् ] (परद्रव्यसम्बन्धी) प्रतिबंधोंको [परिहरमाणः ] परिहरण करता हुआ [श्रामण्ये ] श्रामण्यमें [छेदविहीनः भूत्वा ] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु ] श्रमण विहरो ।।२१३।। १. परद्रव्य -प्रतिबंध = परद्रव्योंमें रागादिपूर्वक संबंध करना; परद्रव्योंमें बँधना – रुकना; लीन होना; परद्रव्योंमें
मुनिराज विहरो सर्वदा थई छेदहीन श्रामण्यमां. २१३.