Pravachansar (Hindi). Gatha: 214.

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सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरंजकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य
छेदायतनानि; तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् अत आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य वासे वा
गुरुत्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन्
परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम्
।।२१३।।
अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एव प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ।।२१४।।
चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे
प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ।।२१४।।
भवीय छेदविहीनो भूत्वा, रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रच्युतिरूपच्छेदरहितो भूत्वा
तथाहिगुरुपार्श्वे यावन्ति शास्त्राणि तावन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरुं पृष्ट्वा च समशीलतपोधनैः सह,
भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं जनयन्, तपःश्रुतसत्त्वैकत्वसन्तोषभावनापञ्चकं भावयन्,
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
३९३
प्र. ५०
टीका :वास्तवमें सभी परद्रव्यप्रतिबंध उपयोगके उपरंजक होनेसे निरुपराग
उपयोगरूप श्रामण्यके छेदके आयतन हैं; उनके अभावसे ही अछिन्न श्रामण्य होता है इसलिये
आत्मामें ही आत्माको सदा अधिकृत करके (आत्माके भीतर) बसते हुए अथवा गुरुरूपसे
गुरुओंको अधिकृत करके (गुरुओंके सहवासमें) निवास करते हुए या गुरुओंसे विशिष्टभिन्न
वासमें वसते हुए, सदा ही परद्रव्यप्रतिबंधोंको निषेधता (परिहरता) हुआ श्रामण्यमें छेदविहीन
होकर श्रमण वर्तो
।।२१३।।
अब, श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन होनेसे स्वद्रव्यमें ही प्रतिबंध (सम्बन्ध लीनता)
करने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[यः श्रमणः ] जो श्रमण [नित्यं ] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे ] ज्ञानमें और
दर्शनादिमें [निबद्धः ] प्रतिबद्ध [च ] तथा [मूलगुणेषु प्रयतः ] मूलगुणोंमें प्रयत (प्रयत्नशील)
[चरति ] विचरण करता है, [सः ] वह [परिपूर्णश्रामण्यः ] परिपूर्ण श्रामण्यवान् है
।।२१४।।
१. उपरंजक = उपराग करनेवाले, मलिनताविकार करनेवाले २. निरुपराग = उपरागरहित; विकाररहित
३. अधिकृत करके = स्थापित करके; रखकर
४. अधिकृत करके = अधिकार देकर; स्थापित करके; अंगीकृत करके
जे श्रमण ज्ञानदृगादिके प्रतिबद्ध विचरे सर्वदा,
ने प्रयत मूळगुणो विषे, श्रामण्य छे परिपूर्ण त्यां. २१४.