Pravachansar (Hindi). Gatha: 215.

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एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य
परिपूर्णतायतनं; तत्सद्भावादेव परिपूर्णं श्रामण्यम् अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धेन
मूलगुणप्रयततया चरितव्यं; ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति
तात्पर्यम्
।।२१४।।
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य
इत्युपदिशति
भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा
उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ।।२१५।।
तीर्थकरपरमदेवगणधरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन्, परेषां प्रकाशयंश्च, विहरतीति
भावः
।।२१३।। अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति
चरदि चरति वर्तते क थंभूतः णिबद्धो आधीनः, णिच्चं नित्यं सर्वकालम् सः क : क र्ता समणो
लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः क्व निबद्धः णाणम्हि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूत-
स्वसंवेदनज्ञाने वा, दंसणमुहम्हि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूप-
निश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु पयदो मूलगुणेसु य प्रयतः प्रयत्नपरश्च केषु
मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्रव्ये वा जो सो पडिपुण्णसामण्णो य एवंगुणविशिष्टश्रमणः स
परिपूर्णश्रामण्यो भवतीति अयमत्रार्थःनिजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णश्रामण्यं भवतीति ।।२१४।।
३९४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका :एक स्वद्रव्यप्रतिबंध ही, उपयोगका मार्जन (-शुद्धत्व) करनेवाला
होनेसे, मार्जित (-शुद्ध) उपयोगरूप श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन है; उसके सद्भावसे ही
परिपूर्ण श्रामण्य होता है
इसलिये सदा ज्ञानमें और दर्शनादिकमें प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणोंमें
प्रयत्नशीलतासे विचरना;ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्यमें प्रतिबद्ध ऐसा शुद्ध
अस्तित्वमात्ररूपसे वर्तना, यह तात्पर्य है ।।२१४।।
अब, मुनिजनको निकटका सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबंध भी, श्रामण्यके छेदका आयतन
होनेसे निषेध्य है, ऐसा उपदेश करते हैं :
१. प्रतिबद्ध = संबद्ध; रुका हुआ; बँधा हुआ; स्थित; स्थिर; लीन
२. आगम विरुद्ध आहारविहारादि तो मुनिके छूटा हुआ ही होनेसे उसमें प्रतिबंध होना तो मुनिके लिये दूर
है; किन्तु आगमकथित आहार विहारादिमें मुनि प्रवर्तमान है इसलिये उसमें प्रतिबंध हो जाना संभवित होनेसे
वह प्रतिबंध निकटका है
३. सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्ध = परद्रव्यमें सूक्ष्म प्रतिबंध
मुनि क्षपण मांही, निवासस्थान, विहार या भोजन महीं,
उपधि
श्रमणविकथा महीं प्रतिबंधने इच्छे नहीं. २१५.