Pravachansar (Hindi).

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अप्रयता वा चर्या शयनासनस्थानचङ्क्रमणादिषु
श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा सन्ततेति मता ।।२१६।।
अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्; तस्य हिंसनात् स
एव च हिंसा अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या
चर्या सा खलु तस्य सर्वकालमेव सन्तानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिंसैव ।।२१६।।
हिंसा मता चरिया चर्या चेष्टा यदि चेत् कथंभूता अपयत्ता वा अप्रयत्ना वा, निःकषायस्वसंवित्ति-
रूपप्रयत्नरहिता संक्लेशसहितेत्यर्थः केषु विषयेषु सयणासणठाणचंकमादीसु शयनासनस्थान-
चङ्क्र मणस्वाध्यायतपश्चरणादिषु कस्य समणस्स श्रमणस्य तपोधनस्य क्व सव्वकाले सर्वकाले
अयमत्रार्थः ---बाह्यव्यापाररूपाः शत्रवस्तावत्पूर्वमेव त्यक्तास्तपोधनैः, अशनशयनादिव्यापारैः पुनस्त्यक्तुं
नायाति
ततः कारणादन्तरङ्गक्रोधादिशत्रुनिग्रहार्थं तत्रापि संक्लेशो न कर्तव्य इति ।।२१६।।
अथान्तरङ्गबहिरङ्गहिंसारूपेण द्विविधच्छेदमाख्यातिमरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा
म्रियतां वा जीवतु वा जीवः, प्रयत्नरहितस्य निश्चिता हिंसा भवति; बहिरङ्गान्यजीवस्य मरणेऽमरणे
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
३९७
अन्वयार्थ :[श्रमणस्य ] श्रमणके [शयनासनस्थानचंक्रमणादिषु ] शयन, आसन
(बैठना), स्थान (खड़े रहना), गमन इत्यादिमें [अप्रयता वा चर्या ] जो अप्रयत चर्या है [सा ]
वह [सर्वकाले ] सदा [संतता हिंसा इति मता ] सतत हिंसा मानी गई है
।।२१६।।
टीका :अशुद्धोपयोग वास्तवमें छेद है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप
श्रामण्यका छेदन होता है; और वही (-अशुद्धोपयोग ही) हिंसा है, क्योंकि (उससे)
शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यका हिंसन (हनन) होता है
इसलिये श्रमणके, जो अशुद्धोपयोगके बिना
नहीं होती ऐसे शयनआसनस्थानगमन इत्यादिमें अप्रयत चर्या (आचरण) वह वास्तवमें
उसके लिये सर्वकालमें (सदा) ही संतानवाहिनी हिंसा ही हैजो कि छेदसे अनन्यभूत है
(अर्थात् छेदसे कोई भिन्न वस्तु नहीं है )
भावार्थ :अशुद्धोपयोगसे शुद्धोपयोगरूप मुनित्व (१) छिदता है (२) हनन होता
है, इसलिये अशुद्धोपयोग (१) छेद ही है, (२) हिंसा ही है और जहाँ सोने, बैठने, खड़े
होने, चलने इत्यादिमें अप्रयत आचरण होता है वहाँ नियमसे अशुद्धोपयोग तो होता ही है,
इसलिये अप्रयत आचरण छेद ही है, हिंसा ही है
।।२१६।।
१. अप्रयत = प्रयत्न रहित, असावधान, असंयमी, निरंकुश, स्वच्छन्दी [अप्रयत चर्या अशुद्धोपयोगके बिना
कभी नहीं होती ]]
२. संतानवाहिनी = संतत, सतत, निरंतर, धारावाही, अटूट; [जब तक अप्रयत चर्या है तब तक सदा ही हिंसा
सततरूपसे चालू रहती है ]]