Pravachansar (Hindi).

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वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्त -
मेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि
व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं
निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि
।।१४।।
न भवतीति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमूर्च्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ।।२१९।। एवं
भावहिंसाव्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषटंक गतम् इति पूर्वोक्तक्रमेण ‘एवं पणमिय सिद्धे’
इत्याद्येकविंशतिगाथाभिः स्थलपञ्चकेनोत्सर्गचारित्रव्याख्याननामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः अतः
परं चारित्रस्य देशकालापेक्षयापहृतसंयमरूपेणापवादव्याख्यानार्थं पाठक्रमेण त्रिंशद्गाथाभिर्द्वितीयो-
ऽन्तराधिकारः प्रारभ्यते
तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति तस्मिन्प्रथमस्थले निर्ग्रन्थमोक्षमार्ग-
स्थापनामुख्यत्वेन ‘ण हि णिरवेक्खो चागो’ इत्यादि गाथापञ्चकम् अत्र टीकायां गाथात्रयं नास्ति
तदनन्तरं सर्वसावद्यप्रत्याख्यानलक्षणसामायिकसंयमासमर्थानां यतीनां संयमशौचज्ञानोपकरण-
निमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘छेदो जेण ण विज्जदि’ इत्यादि सूत्रत्रयम्
तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाण-
निराकरणप्रधानत्वेन ‘पेच्छदि ण हि इह लोगं’ इत्याद्येकादश गाथा भवन्ति ताश्च अमृतचन्द्रटीकायां
सन्ति ततः परं सर्वोपेक्षासंयमासमर्थस्य तपोधनस्य देशकालापेक्षया किंचित्संयमसाधकशरीरस्य
वसंतातिलका छंद
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४०३
भावार्थ :अशुद्धोपयोगका असद्भाव हो, तथापि कायकी हलनचलनादि क्रिया
होनेसे परजीवोंके प्राणोंका घात हो जाता है इसलिये कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे बंध
होनेका नियम नहीं है;अशुद्धोपयोगके सद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे
तो बंध होता है, और अशुद्धोपयोगके असद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे
बंध नहीं होता; इसप्रकार कायचेष्टापूर्वक होनेवाले परप्राणोंके घातसे बंधका होना अनैकान्तिक
होनेसे उसके छेदपना अनैकान्तिक है
नियमरूप नहीं है
जैसे भावके बिना भी परप्राणोंका घात हो जाता है, उसीप्रकार भाव न हो तथापि
परिग्रहका ग्रहण हो जाय, ऐसा कभी नहीं हो सकता जहाँ परिग्रहका ग्रहण होता है वहाँ
अशुद्धोपयोगका सद्भाव अवश्य होता ही है इसलिये परिग्रहसे बंधका होना ऐकांतिक
निश्चितनियमरूप है इसलिये परिग्रहके छेदपना ऐकान्तिक है ऐसा होनेसे ही परम श्रमण
ऐसे अर्हन्त भगवन्तोंने पहलेसे ही सर्व परिग्रहका त्याग किया है और अन्य श्रमणोंको भी
पहलेसे
ही सर्व परिग्रहका त्याग करना चाहिये ।।२१९।।
[अब, ‘कहने योग्य सब कहा गया है’ इत्यादि कथन श्लोक द्वारा किया जाता है ]
[अर्थ ] :जो कहने योग्य ही था वह अशेषरूपसे कहा गया है, इतने मात्रसे ही
यदि यहाँ कोई चेत जायसमझले तो, (अन्यथा) वाणीका अतिविस्तार किया जाय तथापि
निश्चेतन (-जड़वत्, नासमझ) को व्यामोहका जाल वास्तवमें अति दुस्तर है