निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि ।।१४।।
ऽन्तराधिकारः प्रारभ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति । तस्मिन्प्रथमस्थले निर्ग्रन्थमोक्षमार्ग-
निमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘छेदो जेण ण विज्जदि’ इत्यादि सूत्रत्रयम् । तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाण-
भावार्थ : — अशुद्धोपयोगका असद्भाव हो, तथापि कायकी हलनचलनादि क्रिया होनेसे परजीवोंके प्राणोंका घात हो जाता है । इसलिये कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे बंध होनेका नियम नहीं है; — अशुद्धोपयोगके सद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे तो बंध होता है, और अशुद्धोपयोगके असद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे बंध नहीं होता; इसप्रकार कायचेष्टापूर्वक होनेवाले परप्राणोंके घातसे बंधका होना अनैकान्तिक होनेसे उसके छेदपना अनैकान्तिक है — नियमरूप नहीं है ।
जैसे भावके बिना भी परप्राणोंका घात हो जाता है, उसीप्रकार भाव न हो तथापि परिग्रहका ग्रहण हो जाय, ऐसा कभी नहीं हो सकता । जहाँ परिग्रहका ग्रहण होता है वहाँ अशुद्धोपयोगका सद्भाव अवश्य होता ही है । इसलिये परिग्रहसे बंधका होना ऐकांतिक – निश्चित – नियमरूप है । इसलिये परिग्रहके छेदपना ऐकान्तिक है । ऐसा होनेसे ही परम श्रमण ऐसे अर्हन्त भगवन्तोंने पहलेसे ही सर्व परिग्रहका त्याग किया है और अन्य श्रमणोंको भी पहलेसे ही सर्व परिग्रहका त्याग करना चाहिये ।।२१९।।
यदि यहाँ कोई चेत जाय – समझले तो, (अन्यथा) वाणीका अतिविस्तार किया जाय तथापि निश्चेतन (-जड़वत्, नासमझ) को व्यामोहका जाल वास्तवमें अति दुस्तर है । ★वसंतातिलका छंद