Pravachansar (Hindi). Gatha: 223.

< Previous Page   Next Page >


Page 408 of 513
PDF/HTML Page 441 of 546

 

४०८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
विशिष्टकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय
परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशावसन्नशक्तिर्न प्रतिपत्तुं क्षमते,
तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरंगसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते
स तु तथास्थीयमानो न
खलूपधित्वाच्छेदः, प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छेदः अयं
तु श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुभूताहारनिहारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थ-
मुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात्
।।२२२।।
अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति
अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं
मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।।२२३।।

निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपधिमुपकरणरूपोपधिं, अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं अप्रार्थनीयं निर्विकारात्मोपलब्धिलक्षणभावसंयमरहितस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम्, मुच्छादिजणणरहिदं हैऐसा उत्सर्ग (-सामान्य नियम) है; और विशिष्ट कालक्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध

ऐसा अपवाद है जब श्रमण सर्व उपधिके निषेधका आश्रय लेकर परमोपेक्षासंयमको

प्राप्त करनेका इच्छुक होने पर भी विशिष्ट कालक्षेत्रके वश हीन शक्तिवाला होनेसे उसे प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधनमात्र उपधिका आश्रय करता है इसप्रकार जिसका आश्रय किया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपनेके कारण वास्तवमें छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छेदकी निषेधरूप (-त्यागरूप) ही है जो उपधि अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वह छेद है किन्तु यह (संयमकी बाह्यसाधनमात्रभूत उपधि) तो श्रामण्यपर्यायकी सहकारी कारणभूत शरीरकी वृत्तिके हेतुभूत आहार -नीहारादिके ग्रहणविसर्जन (ग्रहणत्याग) संबंधी छेदके निषेधार्थ ग्रहण की जानेसे सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छेदके निषेधरूप ही है ।।२२२।।

अब, अनिषिद्ध उपधिका स्वरूप कहते हैं : १. परमोपेक्षासंयम = परमउपेक्षासंयम [उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग परमोपेक्षासंयम, वीतराग चारित्र, और

शुद्धोपयोग;ये सब एकार्थवाची हैं ]] २. अपकर्षण = हीनता [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम (अल्पताहीनतावाला संयम)

सरागचारित्र और शुभोपयोगये सब एकार्थवाची हैं ]]
उपधि अनिंदितने, असंयत जन थकी अणप्रार्थ्यने,
मूर्छादिजनन रहितने ज ग्रहो श्रमण, थोडो भले. २२३
.