तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तद्बहिरंगसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथास्थीयमानो न
मुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात् ।।२२२।।
निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपधिमुपकरणरूपोपधिं, अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं अप्रार्थनीयं निर्विकारात्मोपलब्धिलक्षणभावसंयमरहितस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम्, मुच्छादिजणणरहिदं है — ऐसा उत्सर्ग (-सामान्य नियम) है; और विशिष्ट कालक्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध
प्राप्त करनेका इच्छुक होने पर भी विशिष्ट कालक्षेत्रके वश हीन शक्तिवाला होनेसे उसे प्राप्त करनेमें असमर्थ होता है, तब उसमें २अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधनमात्र उपधिका आश्रय करता है । इसप्रकार जिसका आश्रय किया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपनेके कारण वास्तवमें छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छेदकी निषेधरूप (-त्यागरूप) ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु यह (संयमकी बाह्यसाधनमात्रभूत उपधि) तो श्रामण्यपर्यायकी सहकारी कारणभूत शरीरकी वृत्तिके हेतुभूत आहार -नीहारादिके ग्रहण – विसर्जन (ग्रहण – त्याग) संबंधी छेदके निषेधार्थ ग्रहण की जानेसे सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छेदके निषेधरूप ही है ।।२२२।।
अब, अनिषिद्ध उपधिका स्वरूप कहते हैं : — १. परमोपेक्षासंयम = परम – उपेक्षासंयम [उत्सर्ग, निश्चयनय, सर्वपरित्याग परमोपेक्षासंयम, वीतराग चारित्र, और
शुद्धोपयोग; — ये सब एकार्थवाची हैं ।]] २. अपकर्षण = हीनता [अपवाद, व्यवहारनय, एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयम (अल्पता – हीनतावाला संयम)
मूर्छादिजनन रहितने ज ग्रहो श्रमण, थोडो भले. २२३.