प्रदीपपूरणोत्सर्पणस्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भप्रसिद्धयर्थतच्छरीरसम्भोजनसंचलनाभ्यां
युक्ताहारविहारो हि स्यात् श्रमणः । इदमत्र तात्पर्यम् — यतो हि रहितकषायः ततो न
संवित्त्यवष्टम्भबलेन रहितकषायश्चेति । अयमत्र भावार्थः — योऽसौ इहलोकपरलोकनिरपेक्षत्वेन निःकषायत्वेन च प्रदीपस्थानीयशरीरे तैलस्थानीयं ग्रासमात्रं दत्वा घटपटादिप्रकाश्यपदार्थस्थानीयं निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारो भवति, न पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत इति ।।२२६।। अथ पञ्चदशप्रमादैस्तपोधनः प्रमत्तो भवतीति प्रतिपादयति — (वर्तमान) कालमें मनुष्यत्वके होते हुए भी (स्वयं) समस्त मनुष्यव्यवहारसे १बहिर्भूत होनेके कारण इस लोकके प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है; तथा भविष्यमें होनेवाले देवादि भावोंके अनुभवकी तृष्णासे शून्य होनेके कारण परलोकके प्रति अप्रतिबद्ध है; इसलिये, जैसे ज्ञेय पदार्थोंके ज्ञानकी सिद्धिके लिये (-घटपटादि पदार्थोंको देखनेके लिये ही) दीपकमें तेल डाला जाता है और दीपकको हटाया जाता है, उसीप्रकार श्रमण शुद्ध आत्मतत्त्वकी उपलब्धिकी सिद्धिके लिये (-शुद्धात्माको प्राप्त करनेके लिये ही) वह शरीरको खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहारविहारी होता है
यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि : — श्रमण कषायरहित है इसलिये वह शरीरके (-वर्तमान मनुष्य – शरीरके) अनुरागसे या दिव्य शरीरके (-भावी देवशरीरके) अनुरागसे आहार – विहारमें अयुक्तरूपसे प्रवृत्त नहीं होता; किन्तु शुद्धात्मतत्वकी उपलब्धिकी साधकभूत श्रामण्यपर्यायके पालनके लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है ।।२२६।।
अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी (-अनाहारी और अविहारी) ही है ऐसा उपदेश करते हैं : — १ बहिर्भूत = बाहर, रहित, उदासीन ।
वण – एषणा भिक्षा वळी, तेथी अनाहारी मुनि. २२७.