संयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानपवाद-
निरपेक्ष उत्सर्गः । देशकालज्ञस्यापि बालवृद्धश्रान्तग्लानत्वानुरोधेनाहारविहारयोरल्पलेपत्वं
तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान् लेपो भवति, तन्न श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवादः ।
सापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः ।।२३१।।
पथ्यादिसावद्यभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तर्हि महान् लेपो भवति;
अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीव्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पटयेन संयमविराधनां
करोति तदापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवादं त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपं
देशकालज्ञको भी, यदि वह बाल – वृद्ध – श्रांत – ग्लानत्वके अनुरोधसे, जो आहार – विहार है, उससे होनेवाले अल्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न करे तो (अर्थात् अपवादके आश्रयसे होनेवाले अल्पबंधके भयसे उत्सर्गका हठ करके अपवादमें प्रवृत्त न हो तो), अति कर्कश आचरणरूप होकर अक्रमसे शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृतका समूह वमन कर डाला है उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है ।
देशकालज्ञको भी, यदि वह बाल – वृद्ध – श्रांत – ग्लानत्वके अनुरोधसे जो आहारविहार है, उससे होनेवाले अल्पलेपको न गिनकर उसमें १यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो (अर्थात् अपवादसे होनेवाले अल्पबन्धके प्रति असावधान होकर उत्सर्गरूप ध्येयको चूककर अपवादमें स्वच्छन्दपूर्वक प्रवर्ते तो), मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधीको – असंयतजनके समान हुए उसको – उस समय तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है । इसलिये उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है ।
इससे (ऐसा कहा गया है कि) उत्सर्ग और अपवादके विरोधसे होनेवाला जो आचरणका दुःस्थितपना वह सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवादसे जिसकी वृत्ति (-अस्तित्व, कार्य) प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य (अनुसरण करने योग्य) है । १. यथेष्ट = स्वच्छंदतया, इच्छाके अनुसार ।