श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।१५।।
भावार्थ : — जब तक शुद्धोपयोगमें ही लीन न हो जाया जाय तब तक श्रमणको आचरणकी सुस्थितिके लिये उत्सर्ग और अपवादकी मैत्री साधनी चाहिये । उसे अपनी निर्बलताका लक्ष रखे बिना मात्र उत्सर्गका आग्रह रखकर केवल अति कर्कश आचरणका हठ नहीं करना चाहिये; तथा उत्सर्गरूप ध्येयको चूककर मात्र अपवादके आश्रयसे केवल मृदु आचरणरूप शिथिलताका भी सेवन नहीं करना चाहिये । किन्तु इस प्रकारका वर्तन करना चाहिये जिसमें हठ भी न हो और शिथिलताका भी सेवन न हो । सर्वज्ञ भगवानका मार्ग अनेकान्त है । अपनी दशाकी जाँच करके जैसे भी लाभ हो उसप्रकारसे वर्तन करनेका भगवानका उपदेश है ।
अपनी चाहे जो (सबल या निर्बल) स्थिति हो, तथापि एक ही प्रकारसे वर्तना, ऐसा जिनमार्ग नहीं है ।।२३१।।
अब श्लोक द्वारा आत्मद्रव्यमें स्थिर होनेकी बात कहकर ‘आचरणप्रज्ञापन’ पूर्ण किया जाता है ।
अर्थ : — इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषोंके द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक् – पृथक् भूमिकाओंमें व्याप्त जो चारित्र उसको यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निजद्रव्यमें सर्वतः स्थिति करो ।
इसप्रकार ‘आचरण प्रज्ञापन’ समाप्त हुआ । ★शार्दूलविक्रीड़ित छंद