DIV style="position:relative;left:492px">यं भण्यते
समूहके यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानसे गम्भीर है ) ।
और, पदार्थोंके निश्चयके बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थोंकानिश्चय नहीं है वह (१) कदाचित् निश्चय करनेकी इच्छासे आकुलताप्राप्त चित्तके कारण सर्वतः दोलायमान (-डावाँडोल) होनेसे अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है, (२) कदाचित् करनेकी इच्छारूप ज्वरसे परवश होता हुआ विश्वको (-समस्त पदार्थोंको) स्वयं सर्जन करनेकी इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (-समस्त पदार्थोंकी प्रवृत्तिरूप) परिणमित होनेसे प्रतिक्षण क्षोभकी प्रगटताको प्राप्त होता है, और (३) कदाचित् भोगनेकी इच्छासे भावित होता हुआ विश्वको स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोषसे कलुषित चित्तवृत्तिके कारण (वस्तुओंमें) इष्ट – अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैतको प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमितहोनेसे अत्यन्त अस्थिरताको प्राप्त होता है, इसलिये [-उपरोक्त तीन कारणोंसे ] उस अनिश्चयी जीवके (१) कृतनिश्चय, (२) निष्क्रिय और (३) निर्भोग ऐसे भगवान आत्माको — जो कियुगपत् विश्वको पी जानेवाला होने पर भी विश्वरूप न होनेसे एक है उसे — नहीं देखनेसे सततव्यग्रता ही होती है, (-एकाग्रता नहीं होती) ।
और एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वहजीव (१) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा देखता (-श्रद्धान करता) हुआ उसप्रकारकी प्रतीतिमें
अभिनिविष्ट होता है; (२) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा जानता हुआ उसप्रकारकी अनुभूतिसे
भावित होता है, और (३) यह अनेक ही है’ इसप्रकार प्रत्येक पदार्थके विकल्पसे खण्डित (-छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत् प्रवृत्त होता हुआ उसप्रकारकी २वृत्तिसे दुःस्थित होता है,१. अभिनिविष्ट = आग्रही, दृढ़ । २. वृत्ति = वर्तना; चारित्र ।