Pravachansar (Hindi).

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यतोऽनिश्चितार्थस्य कदाचिन्निश्चिकीर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया,
कदाचिच्चिकीर्षाज्वरपरवशस्य विश्वं स्वयं सिसृक्षोर्विश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविजृम्भ-
माणक्षोभतया, कदाचिद्बुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषित-
चित्तवृत्तेरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वैतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंष्ठुलतया, कृत-
निश्चयनिःक्रियनिर्भोगं युगपदापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानमपश्यतः सततं
वैयग्
्रयमेव स्यात न चैकाग््रयमन्तरेण श्रामण्यं सिद्धयेत्, यतोऽनैकाग््रयस्यानेकमेवेदमिति
पश्यतस्तथाप्रत्ययाभिनिविष्टस्यानेकमेवेदमिति जानतस्तथानुभूतिभावितस्यानेकमेवेदमिति
प्रत्यर्थविकल्पव्यावृत्तचेतसा सन्ततं प्रवर्तमानस्य तथावृत्तिदुःस्थितस्य चैकात्मप्रतीत्यनुभूति-
तच्चैकाग्यमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकाशयतिएयग्गगदो समणो ऐकाग्यगतः श्रमणो भवति ।।
अत्रायमर्थःजगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवल-
ज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपमैकाग्
DIV style="position:absolute;top:516px;left:492px">यं भण्यते
तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४३१
समूहके यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थोंके यथार्थ ज्ञानसे गम्भीर है )
और, पदार्थोंके निश्चयके बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थोंका
निश्चय नहीं है वह (१) कदाचित् निश्चय करनेकी इच्छासे आकुलताप्राप्त चित्तके कारण सर्वतः
दोलायमान (-डावाँडोल) होनेसे अत्यन्त तरलता (चंचलता) प्राप्त करता है, (२) कदाचित्
करनेकी इच्छारूप ज्वरसे परवश होता हुआ विश्वको (-समस्त पदार्थोंको) स्वयं सर्जन
करनेकी इच्छा करता हुआ विश्वव्यापाररूप (-समस्त पदार्थोंकी प्रवृत्तिरूप) परिणमित होनेसे
प्रतिक्षण क्षोभकी प्रगटताको प्राप्त होता है, और (३) कदाचित् भोगनेकी इच्छासे भावित होता
हुआ विश्वको स्वयं भोग्यरूप ग्रहण करके, रागद्वेषरूप दोषसे कलुषित चित्तवृत्तिके कारण
(वस्तुओंमें) इष्ट
अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैतको प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित
होनेसे अत्यन्त अस्थिरताको प्राप्त होता है, इसलिये [-उपरोक्त तीन कारणोंसे ] उस अनिश्चयी
जीवके (१) कृतनिश्चय, (२) निष्क्रिय और (३) निर्भोग ऐसे भगवान आत्माको
जो कि
युगपत् विश्वको पी जानेवाला होने पर भी विश्वरूप न होनेसे एक है उसेनहीं देखनेसे सतत
व्यग्रता ही होती है, (-एकाग्रता नहीं होती)
और एकाग्रताके बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह
जीव (१) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा देखता (-श्रद्धान करता) हुआ उसप्रकारकी प्रतीतिमें
अभिनिविष्ट होता है; (२) ‘यह अनेक ही है’ ऐसा जानता हुआ उसप्रकारकी अनुभूतिसे
भावित होता है, और (३) यह अनेक ही है’ इसप्रकार प्रत्येक पदार्थके विकल्पसे खण्डित
(-छिन्नभिन्न) चित्त सहित सतत् प्रवृत्त होता हुआ उसप्रकारकी
वृत्तिसे दुःस्थित होता है,
१. अभिनिविष्ट = आग्रही, दृढ़ २. वृत्ति = वर्तना; चारित्र
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