मन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्धयेत् । अतः कर्म-
स्वकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेत्ति, तथाचाशरीरलक्षणशुद्धात्म- पदार्थस्य शरीरादिनोकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति । इत्थंभूतभेदज्ञानाभावाद्देहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न रोचते, समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति । ततश्च कथं कर्मक्षयो भवति, न कथमपीति । ततः कारणान्मोक्षार्थिना परमागमाभ्यास एव कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।२३३।। अथ मोक्षमार्गार्थिनामागम अनादि संसारसे परिवर्तनको पानेवाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठताके अतिरिक्त अनिवार्य होनेसे, ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका क्षय भी सिद्ध नहीं होता । इसलिये कर्मक्षयार्थियोंको सर्वप्रकारसे आगमकी पर्युपासना करना योग्य है ।
भावार्थ : — आगमकी पर्युपासनासे रहित जगतको आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव न होनेसे ‘यह जो अमूर्तिक आत्मा है सो मैं हूँ, और ये समानक्षेत्रावगाही शरीरादिक वह पर हैं’ इसीप्रकार ‘ये जो उपयोग है सो मैं हूँ और ये उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषादिभाव हैं सो पर है’ इसप्रकार स्व – परका भेदज्ञान नहीं होता था उसे आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव न होनेसे ‘मैं ज्ञानस्वभावी एक परमात्मा हूँ’ ऐसा परमात्मज्ञान भी नहीं होता ।
इसप्रकार जिसे (१) स्व – पर ज्ञान तथा (२) परमात्मज्ञान नहीं है उसे, (१) हनन होने योग्य स्वका और हननेवाले मोहादिद्रव्यभावकर्मरूप परका भेदज्ञान न होनेसे मोहादिद्रव्यभावकर्मोंका क्षय नहीं होता, तथा (२) परमात्मनिष्ठताके अभावके कारण ज्ञप्तिका परिवर्तन नहीं टलनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनरूप कर्मोंका भी क्षय नहीं होता ।
छे देव अवधिचक्षु ने सर्वत्रचक्षु सिद्ध छे . २३४.