इह हि सर्वस्यापि स्यात्कारकेतनागमपूर्विकया तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणया द्रष्टया शून्यस्य स्वपरविभागाभावात् कायकषायैः सहैक्यमध्यवसतोऽनिरुद्धविषयाभिलाषतया षड्जीवनिकाय- घातिनो भूत्वा सर्वतोऽपि कृतप्रवृत्तेः सर्वतो निवृत्त्यभावात्तथा परमात्मज्ञानाभावाद् ज्ञेयचक्र- क्रमाक्रमणनिरर्गलज्ञप्तितया ज्ञानरूपात्मतत्त्वैकाग्ा्रयप्रवृत्त्यभावाच्च संयम एव न तावत् सिद्धयेत् । आगमपूर्विका द्रष्टिः सम्यक्त्वं नास्ति यस्येह लोके संजमो तस्स णत्थि संयमस्तस्य नास्ति इदि भणदि इत्येवं भणति कथयति । किं कर्तृ । सुत्तं सूत्रमागमः । असंजदो होदि किध समणो असंयतः सन् श्रमणस्तपोधनः कथं भवति, न कथमपीति । तथाहि — यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति तर्हि परमागमबलेन विशदैकज्ञानरूपमात्मानं जानन्नपि सम्यग्द्रष्टिर्न भवति, ज्ञानी च न भवति, तद्द्वयाभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषषड्जीववधव्यावृत्तोऽपि संयतो न भवति । ततः
अन्वयार्थ : — [इह ] इस लोकमें [यस्य ] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टिः ] आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [न भवति ] नहीं है [तस्य ] उसके [संयमः ] संयम [नास्ति ] नहीं है, [इति ] इसप्रकार [सूत्रं भणति ] सूत्र कहता है; और [असंयतः ] असंयत वह [श्रमणः ] श्रमण [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? ।।२३६।।
टीका : — इस लोकमें वास्तवमें, स्यात्कार जिसका चिह्न है ऐसे आगमपूर्वक १तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणवाली दृष्टिसे जो शून्य है उन सभीको प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (१) स्वपरके विभागके अभावके कारण काया और कषायोंके साथ एकताका अध्यवसाय करनेवाले ऐसे वे जीव, २विषयोंकी अभिलाषाका निरोध नहीं होनेसे छह जीवनिकायके घाती होकर सर्वतः (सब ओर से) प्रवृत्ति करते हैं, इसलिये उनके सर्वतः निवृत्तिका अभाव है । (अर्थात् किसी भी ओरसे – किंचित्मात्र भी निवृत्ति नहीं है ), तथापि (२) उनके परमात्मज्ञानके अभावके कारण ज्ञेयसमूहको क्रमशः जाननेवाली ३निरर्गल ज्ञप्ति १. तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणवाली = तत्त्वार्थका श्रद्धान जिसका लक्षण है ऐसी । [सम्यग्दर्शनका लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धान है । वह आगमपूर्वक होता है । आगमका चिह्न ‘स्यात्’ कार है] ।] २. जिन जीवोंको स्वपरका भेदज्ञान नहीं है उनके भले ही कदाचित् पंचेन्द्रियोंके विषयोंका संयोग दिखाई
न देता हो, छह जीवनिकायकी द्रव्यहिंसा न दिखाई देती हो और इसप्रकार संयोगसे निवृत्ति दिखाई देती हो, तथापि काया और कषायके साथ एकत्व माननेवाले उन जीवोंके वास्तवमें पंचेन्द्रियके विषयोंकी अभिलाषाका निरोध नहीं है, हिंसाका किंचित्मात्र अभाव नहीं है और इसीप्रकार परभावसे किंचित्मात्र निवृत्ति नहीं है । ३. निरर्गल = निरंकुश; संयमरहित; स्वच्छन्दी ।