श्रद्धानशून्येनागमजनितेन ज्ञानेन, तदविनाभाविना श्रद्धानेन च संयमशून्येन, न
तावत्सिद्धयति । तथा हि — आगमबलेन सक लपदार्थान् विस्पष्टं तर्कयन्नपि, यदि सक ल-
पदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं न तथा प्रत्येति, तदा यथोदितात्मनः श्रद्धान-
शून्यतया यथोदितमात्मानमननुभवन् कथं नाम ज्ञेयनिमग्नो ज्ञानविमूढो ज्ञानी स्यात् ।
अज्ञानिनश्च ज्ञेयद्योतको भवन्नप्यागमः किं कुर्यात् । ततः श्रद्धानशून्यादागमान्नास्ति सिद्धिः ।
किंच, सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि, यदि
स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति, तदानादिमोहरागद्वेषवासनोपजनितपरद्रव्यचङ्क्रमणस्वैरिण्या-
श्चिद्वृत्तेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निर्वासननिष्कम्पैकतत्त्वमूर्च्छितचिद्वृत्त्यभावात्कथं नाम संयतः स्यात् ।
स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदा तस्य प्रदीपस्थानीय
आगमः किं करोति, न किमपि । यथा वा स एव प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि
न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो द्रष्टिर्वा किं करोति, न किमपि । तथायं जीवः
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४४१
प्र. ५६
टीका : — आगमजनित ज्ञानसे, यदि वह श्रद्धानशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती; तथा
उसके (-आगमज्ञानके) विना जो नहीं होता ऐसे श्रद्धानसे भी यदि वह (श्रद्धान) संयमशून्य
हो तो सिद्धि नहीं होती । वह इसप्रकार : —
आगमबलसे सकल पदार्थोंकी विस्पष्ट १तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल
पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ २मिलित होनेवाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे
आत्माको उसप्रकारसे प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्माके श्रद्धानसे शून्य होनेके कारण जो
यथोक्त आत्माका अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा ?
(नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा ।) और अज्ञानीको, ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या
करेगा ? (-आगम ज्ञेयोंका प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानीके लिये क्या कर सकता है ?)
इसलिये श्रद्धानशून्य आगमसे सिद्धि नहीं होती ।
और, सकल पदार्थोंके ज्ञेयाकारोंके साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका
आकार है ऐसे आत्माका श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपनेमें
ही संयमित (-अंकुशित) होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेषकी वासनासे जनित जो
परद्रव्यमें भ्रमण उसके कारण जो स्वैरिणी (-स्वच्छंदी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्वृत्ति (-
चैतन्यकी परिणति) अपनेमें ही रहनेसे, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्वमें लीन चिद्वृत्तिका
अभाव होनेसे, वह कैसे संयत होगा ? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयतको, यथोक्त
१. तर्कणा = विचारणा; युक्ति इत्यादिके आश्रयवाला ज्ञान ।
२. मिलित होने वाला = मिश्रित होनेवाला; संबंधको प्राप्त; अर्थात् उन्हें जाननेवाला । [समस्त पदार्थोंके
ज्ञेयाकार जिसमें प्रतिबिंबित होते हैं अर्थात् उन्हें जानता है ऐसा स्पष्ट एक ज्ञान ही आत्माका रूप है ।]]