Pravachansar (Hindi). Gatha: 241.

< Previous Page   Next Page >


Page 448 of 513
PDF/HTML Page 481 of 546

 

background image
अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यसंयतस्य कीदृग्लक्षण-
मित्यनुशास्ति
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो
समलोट्ठुकं चणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।।२४१।।
समशत्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः
समलोष्टकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ।।२४१।।
संयमः सम्यग्दर्शनज्ञानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्यं मोहक्षोभ-
विहीनः आत्मपरिणामः ततः संयतस्य साम्यं लक्षणम् तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदुःखयोः
प्रशंसानिन्दयोः लोष्टकांचनयोर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्वः, अयं मह्लादोऽयं
परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिंचित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमय-
क्वापि क्वापि यथासंभवमितिशब्दस्यार्थो ज्ञातव्यःस श्रमणः संयतस्तपोधनो भवति यः किंविशिष्टः
शत्रुबन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसालोष्टकाञ्चनजीवितमरणेषु समः समचित्तः इति ततः एतदायातिशत्रु-
बन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसालोष्टकाञ्चनजीवितमरणसमताभावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धान-
४४८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अब, आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वके युगपत्पनेका तथा आत्मज्ञानका
युगपत्पना जिसे सिद्ध हुआ है ऐसे इस संयतका क्या लक्षण है सो कहते हैं :
अन्वयार्थ :[समशत्रुबन्धुवर्गः ] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है,
[समसुखदुःखः ] सुख और दुःख समान है, [प्रशंसानिन्दासमः ] प्रशंसा और निन्दाके प्रति जिसको
समता है, [समलोष्टकाञ्चनः ] जिसे लोष्ट (मिट्टीका ढेला) और सुवर्ण समान है, [पुनः ] तथा
[जीवितमरणे समः ] जीवन
मरणके प्रति जिसको समता है, वह [श्रमणः ] श्रमण है ।।२४१।।
टीका :संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है; साम्य
मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है इसलिये संयतका, साम्य लक्षण है
वहाँ, (१) शत्रुबंधुवर्गमें, (२) सुखदुःखमें, (३) प्रशंसानिन्दामें, (४) मिट्टीके
ढेले और सोनेमें, (५) जीवितमरणमें एक ही साथ, (१) ‘यह मेरा पर (-शत्रु) है, यह
स्व (-स्वजन) है;’ (२) ‘यह आह्लाद है, यह परिताप है,’ (३) ‘यह मेरा उत्कर्षण
(-कीर्ति) है, यह अपकर्षण (-अकीर्ति) है,’ (४) ‘यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक
(-उपयोगी) है,’ (५) ‘यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है’ इसप्रकार मोहके
निंदाप्रशंसा, दुःखसुख, अरिबंधुमां ज्यां साम्य छे,
वळी लोष्टकनके, जीवितमरणे साम्य छे, ते श्रमण छे. २४१.