अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसंभववतोः शुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फल- मालोचयति —
वस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते । स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्रं भण्यते । ‘चारित्तं खलु धम्मो’ इति
और फि र वस्तु तो द्रव्य -गुण -पर्यायमय है । उसमें त्रैकालिक ऊ र्ध्व प्रवाहसामान्य द्रव्य है और साथ ही साथ रहनेवाले भेद वे गुण हैं, तथा क्रमशः होनेवाले भेद वे पर्यायें हैं । ऐसे द्रव्य, गुण और पर्यायकी एकतासे रहित कोई वस्तु नहीं होती । दूसरी रीतिसे कहा जाय तो, वस्तु उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय है अर्थात् वह उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और स्थिर रहती है । इसप्रकार वह द्रव्य -गुण -पर्यायमय और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय होनेसे उसमें क्रिया (परिणमन) होती ही रहती है । इसलिये परिणाम वस्तुका स्वभाव ही है ।।१०।।
अब जिनका चारित्र परिणामके साथ सम्पर्क (सम्बन्ध) है ऐसे जो शुद्ध और शुभ (दो प्रकारके) परिणाम हैं उनके ग्रहण तथा त्यागके लिये (शुद्ध परिणामके ग्रहण और शुभ परिणामके त्यागके लिये) उनका फल विचारते हैं : —
अन्वयार्थ : – [धर्मेण परिणतात्मा ] धर्मसे परिणमित स्वरूपवाला [आत्मा ] आत्मा [यदि ] यदि [शुद्धसंप्रयोगयुक्तः ] शुद्ध उपयोगमें युक्त हो तो [निर्वाणसुखं ] मोक्ष सुखको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है [शुभोपयुक्तः च ] और यदि शुभोपयोगवाला हो तो (स्वर्गसुखम् ) स्वर्गके सुखको (बन्धको) प्राप्त करता है ।।११।।
ते पामतो निर्वाणसुख, ने स्वर्गसुख शुभयुक्त जो.११.