अथ चारित्रपरिणामसंपर्कसंभववतोः शुद्धशुभपरिणामयोरुपादानहानाय फल-
मालोचयति —
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ।।११।।
धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः ।
प्राप्नोति निर्वाणसुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ।।११।।
शुद्धशुभोपयोगपरिणामयोः संक्षेपेण फलं दर्शयति ---धम्मेण परिणदप्पा अप्पा धर्म्मेण परिणतात्मा
परिणतस्वरूपः सन्नयमात्मा जदि सुद्धसंपओगजुदो यदि चेच्छुद्धोपयोगाभिधानशुद्धसंप्रयोग-
परिणामयुतः परिणतो भवति पावदि णिव्वाणसुहं तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति । सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं
शुभोपयोगयुतः परिणतः सन् स्वर्गसुखं प्राप्नोति । इतो विस्तरम् ---इह धर्मशब्देनाहिंसालक्षणः
सागारानगाररूपस्तथोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्ध-
वस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते । स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्रं भण्यते । ‘चारित्तं खलु धम्मो’ इति
वचनात् । तच्च चारित्रमपहृतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोपयोगभेदेन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
१७
प्र. ३
और फि र वस्तु तो द्रव्य -गुण -पर्यायमय है । उसमें त्रैकालिक ऊ र्ध्व प्रवाहसामान्य द्रव्य
है और साथ ही साथ रहनेवाले भेद वे गुण हैं, तथा क्रमशः होनेवाले भेद वे पर्यायें हैं । ऐसे
द्रव्य, गुण और पर्यायकी एकतासे रहित कोई वस्तु नहीं होती । दूसरी रीतिसे कहा जाय तो,
वस्तु उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय है अर्थात् वह उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और स्थिर रहती है ।
इसप्रकार वह द्रव्य -गुण -पर्यायमय और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय होनेसे उसमें क्रिया
(परिणमन) होती ही रहती है । इसलिये परिणाम वस्तुका स्वभाव ही है ।।१०।।
अब जिनका चारित्र परिणामके साथ सम्पर्क (सम्बन्ध) है ऐसे जो शुद्ध और शुभ (दो
प्रकारके) परिणाम हैं उनके ग्रहण तथा त्यागके लिये (शुद्ध परिणामके ग्रहण और शुभ
परिणामके त्यागके लिये) उनका फल विचारते हैं : —
अन्वयार्थ : – [धर्मेण परिणतात्मा ] धर्मसे परिणमित स्वरूपवाला [आत्मा ] आत्मा
[यदि ] यदि [शुद्धसंप्रयोगयुक्तः ] शुद्ध उपयोगमें युक्त हो तो [निर्वाणसुखं ] मोक्ष सुखको
[प्राप्नोति ] प्राप्त करता है [शुभोपयुक्तः च ] और यदि शुभोपयोगवाला हो तो (स्वर्गसुखम् )
स्वर्गके सुखको (बन्धको) प्राप्त करता है ।।११।।
जो धर्म परिणत स्वरूप जिव शुद्धोपयोगी होय तो
ते पामतो निर्वाणसुख, ने स्वर्गसुख शुभयुक्त जो.११.