यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोप- योगपरिणत्या संगच्छते तदा सप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्ध- कार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति । अतः शुद्धोपयोग उपादेयः शुभोपयोगो हेयः ।।११।।
च द्विधा भवति । तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण परिणमति तदा
टीका : — जब यह आत्मा धर्मपरिणत स्वभाववाला होता हुआ शुद्धोपयोग परिणतिको धारण करता है — बनाये रखता है तब, जो विरोधी शक्तिसे रहित होनेके कारण अपना कार्य करनेके लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होनेसे, (वह) साक्षात् मोक्षको प्राप्त करता है; और जब वह धर्मपरिणत स्वभाववाला होने पर भी शुभोपयोग परिणतिके साथ युक्त होता है तब जो १विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्वकार्य करनेमें असमर्थ है और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्रसे युक्त होनेसे, जैसे अग्निसे गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलनसे दुःखी होता है, उसीप्रकार वह स्वर्ग सुखके बन्धको प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।
भावार्थ : — जैसे घी स्वभावतः शीतलता उत्पन्न करनेवाला है तथापि गर्म घी से जल जाते हैं, इसीप्रकार चारित्र स्वभावसे मोक्ष दाता है, तथापि सराग चारित्रसे बन्ध होता है । जैसे ठंडा घी शीतलता उत्पन्न करता है इसीप्रकार वीतराग चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है ।।११।।
अब चारित्र परिणामके साथ सम्पर्क रहित होनेसे जो अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ परिणामका फल विचारते हैं : — १. दान, पूजा, पंच -महाव्रत, देवगुरुधर्म प्रति राग इत्यादिरूप जो शुभोपयोग है वह चारित्रका विरोधी है इसलिये
अशुभोदये आत्मा कुनर, तिर्यंच ने नारकपणे नित्ये सहस्र दुःखे पीड़ित, संसारमां अति अति भमे.१२.