अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्तिं सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति —
श्रमणानामात्मविशुद्धिहेतौ प्रकृते वस्तुनि तदनुकूलक्रियाप्रवृत्त्या गुणातिशयाधानम- प्रतिषिद्धम् ।।२६१।। आचार्यः । किं कृत्वा । दिट्ठा दृष्टवा । किम् । वत्थुं तपोधनभूतं पात्रं वस्तु । किंविशिष्टम् । पगदं प्रकृतं अभ्यन्तरनिरुपरागशुद्धात्मभावनाज्ञापकबहिरङ्गनिर्ग्रन्थनिर्विकाररूपम् । काभिः कृत्वा वर्तताम् । अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं अभ्यागतयोग्याचारविहिताभिरभ्युत्थानादिक्रियाभिः । तदो गुणादो ततो दिन-
अब, अविपरीत फलका कारण ऐसा जो ‘अविपरीत कारण’ उसकी उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य और विशेषरूपसे करने योग्य है ऐसा दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं —
अन्वयार्थ : — [प्रकृतं वस्तु ] १प्रकृत वस्तुको [दृष्ट्वा ] देखकर (प्रथम तो) [अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः ] २अभ्युत्थान आदि क्रियाओंसे [वर्तताम् ] (श्रमण) वर्तो; [ततः ] फि र [गुणात् ] गुणानुसार [विशेषितव्यः ] भेद करना, — [इति उपदेशः ] ऐसा उपदेश है ।।२६०।।
टीका : — श्रमणोंके आत्मविशुद्धिकी हेतुभूत प्रकृत वस्तु (-श्रमण) के प्रति उसके योग्य (श्रमण योग्य) क्रियारूप प्रवृत्तिसे गुणातिशयताका आरोपण करनेका निषेध नहीं है ।
भावार्थ : — यदि कोई श्रमण अन्य श्रमणको देखे तो प्रथम ही, मानो वे अन्य श्रमण गुणातिशयवान् हों इसप्रकार उनके प्रति (अभ्युत्थानादि) व्यवहार करना चाहिये । फि र उनका परिचय होनेके बाद उनके गुणानुसार बर्ताव करना चाहिये ।।२६१।। १. प्रकृत वस्तु = अविकृत वस्तु; अविपरीत पात्र (अभ्यंतर – निरुपराग – शुद्ध आत्माकी भावनाको बतानेवाला
२. अभ्युत्थान = सम्मानार्थ खड़े हो जाना और सम्मुख जाना ।
वर्तो श्रमण, पछी वर्तनीय गुणानुसार विशेषथी. २६१.