Pravachansar (Hindi). Gatha: 261.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४७३

अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्तिं सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति

दिट्ठा पगदं वत्थुं अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं
वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो ।।२६१।।
दृष्टवा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः
वर्ततां ततो गुणाद्विशेषितव्य इति उपदेशः ।।२६१।।

श्रमणानामात्मविशुद्धिहेतौ प्रकृते वस्तुनि तदनुकूलक्रियाप्रवृत्त्या गुणातिशयाधानम- प्रतिषिद्धम् ।।२६१।। आचार्यः किं कृत्वा दिट्ठा दृष्टवा किम् वत्थुं तपोधनभूतं पात्रं वस्तु किंविशिष्टम् पगदं प्रकृतं अभ्यन्तरनिरुपरागशुद्धात्मभावनाज्ञापकबहिरङ्गनिर्ग्रन्थनिर्विकाररूपम् काभिः कृत्वा वर्तताम् अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं अभ्यागतयोग्याचारविहिताभिरभ्युत्थानादिक्रियाभिः तदो गुणादो ततो दिन-

अब, अविपरीत फलका कारण ऐसा जो ‘अविपरीत कारण’ उसकी उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य और विशेषरूपसे करने योग्य है ऐसा दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं

अन्वयार्थ :[प्रकृतं वस्तु ] प्रकृत वस्तुको [दृष्ट्वा ] देखकर (प्रथम तो) [अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः ] अभ्युत्थान आदि क्रियाओंसे [वर्तताम् ] (श्रमण) वर्तो; [ततः ] फि र [गुणात् ] गुणानुसार [विशेषितव्यः ] भेद करना,[इति उपदेशः ] ऐसा उपदेश है ।।२६०।।

टीका :श्रमणोंके आत्मविशुद्धिकी हेतुभूत प्रकृत वस्तु (-श्रमण) के प्रति उसके योग्य (श्रमण योग्य) क्रियारूप प्रवृत्तिसे गुणातिशयताका आरोपण करनेका निषेध नहीं है

भावार्थ :यदि कोई श्रमण अन्य श्रमणको देखे तो प्रथम ही, मानो वे अन्य श्रमण गुणातिशयवान् हों इसप्रकार उनके प्रति (अभ्युत्थानादि) व्यवहार करना चाहिये फि र उनका परिचय होनेके बाद उनके गुणानुसार बर्ताव करना चाहिये ।।२६१।। १. प्रकृत वस्तु = अविकृत वस्तु; अविपरीत पात्र (अभ्यंतरनिरुपरागशुद्ध आत्माकी भावनाको बतानेवाला

जो बहिरंगनिर्ग्रंथनिर्विकाररूप है उस रूपवाले श्रमणको यहाँ ‘प्रकृतवस्तु’ कहा है )

२. अभ्युत्थान = सम्मानार्थ खड़े हो जाना और सम्मुख जाना

प्रकृत वस्तु देखी अभ्युत्थान आदि क्रिया थकी
वर्तो श्रमण, पछी वर्तनीय गुणानुसार विशेषथी. २६१
.
प्र. ६०