यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चय- निवर्तितौत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपमेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचार- परिणतत्वादयथाचारवियुक्तः, विपरीताचाररहित इत्यर्थः, जधत्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिज- परमात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितत्वाद्यथार्थपदनिश्चितः, पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशमभावपरिणतनिजात्म- द्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा, जो यः कर्ता सो संपुण्णसामण्णो स संपूर्णश्रामण्यः सन् चिरं ण जीवदि चिरं बहुतरकालं न जीवति, न तिष्ठति । क्व । अफले शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वाद- रहितत्वेनाफले फलरहिते संसारे । किन्तु शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः — इत्थंभूत-
अन्वयार्थ : — [यथार्थपदनिश्चितः ] जो जीव यथार्थतया पदोंका तथा अर्थों (पदार्थों) का निश्चयवाला होनेसे [प्रशान्तात्मा ] १प्रशान्तात्मा है और [अयथाचारवियुक्तः ] अयथाचार ( – अन्यथाआचरण, अयथार्थआचरण) रहित है, [सः संपूर्णश्रामण्यः ] वह संपूर्ण श्रामण्यवाला जीव [अफले ] अफल ( – कर्मफल रहित हुए) [इह ] इस संसारमें [चिरं न जीवति ] चिरकाल तक नहीं रहता ( – अल्पकालमें ही मुक्त होता है ।) ।।२७२।।
टीका : — जो (श्रमण) त्रिलोककी चूलिका (कलगी) के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिकाके प्रकाशवाला होनेसे यथास्थित पदार्थनिश्चयसे उत्सुकताका निवर्तन करके २स्वरूपमंथर रहनेसे सतत ‘उपशांतात्मा’ वर्तता हुआ, स्वरूपमें एकमें ही अभिमुखरूपसे १. प्रशांतात्मा = प्रशांतस्वरूप; प्रशांतमूर्ति; उपशांत; स्थिर हुआ । २. स्वरूपमंथर = स्वरूपमें जमा हुआ [मन्थरका अर्थ है सुस्त, आलसी । यह श्रमण स्वरूपमें तृप्त तृप्त होनेसे
है ।]