अथ मोक्षतत्त्वमुद्घाटयति —
अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा ।
अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ।।२७२।।
अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा ।
अफले चिरं न जीवति इह स सम्पूर्णश्रामण्यः ।।२७२।।
यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चय-
निवर्तितौत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपमेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचार-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४८७
परिणतत्वादयथाचारवियुक्तः, विपरीताचाररहित इत्यर्थः, जधत्थपदणिच्छिदो सहजानन्दैकस्वभावनिज-
परमात्मादिपदार्थपरिज्ञानसहितत्वाद्यथार्थपदनिश्चितः, पसंतप्पा विशिष्टपरमोपशमभावपरिणतनिजात्म-
द्रव्यभावनासहितत्वात्प्रशान्तात्मा, जो यः कर्ता सो संपुण्णसामण्णो स संपूर्णश्रामण्यः सन् चिरं ण जीवदि
चिरं बहुतरकालं न जीवति, न तिष्ठति । क्व । अफले शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वाद-
रहितत्वेनाफले फलरहिते संसारे । किन्तु शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः — इत्थंभूत-
अब मोक्ष तत्वको प्रगट करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यथार्थपदनिश्चितः ] जो जीव यथार्थतया पदोंका तथा अर्थों (पदार्थों)
का निश्चयवाला होनेसे [प्रशान्तात्मा ] १प्रशान्तात्मा है और [अयथाचारवियुक्तः ] अयथाचार ( –
अन्यथाआचरण, अयथार्थआचरण) रहित है, [सः संपूर्णश्रामण्यः ] वह संपूर्ण श्रामण्यवाला जीव
[अफले ] अफल ( – कर्मफल रहित हुए) [इह ] इस संसारमें [चिरं न जीवति ] चिरकाल तक
नहीं रहता ( – अल्पकालमें ही मुक्त होता है ।) ।।२७२।।
टीका : — जो (श्रमण) त्रिलोककी चूलिका (कलगी) के समान निर्मल विवेकरूपी
दीपिकाके प्रकाशवाला होनेसे यथास्थित पदार्थनिश्चयसे उत्सुकताका निवर्तन करके
२स्वरूपमंथर रहनेसे सतत ‘उपशांतात्मा’ वर्तता हुआ, स्वरूपमें एकमें ही अभिमुखरूपसे
१. प्रशांतात्मा = प्रशांतस्वरूप; प्रशांतमूर्ति; उपशांत; स्थिर हुआ ।
२. स्वरूपमंथर = स्वरूपमें जमा हुआ [मन्थरका अर्थ है सुस्त, आलसी । यह श्रमण स्वरूपमें तृप्त तृप्त होनेसे
मानो वह स्वरूपसे बाहर निकलनेको सुस्त या आलसी हो, इसप्रकार स्वरूपप्रशांतिमें मग्न होकर रहा
है ।]
अयथाचरणहीन, सूत्र – अर्थसुनिश्चयी उपशांत जे,
ते पूर्ण साधु अफ ळ आ संसारमां चिर नहि रहे. २७२.