भावपरावर्ताभावात् शुद्धस्वभावावस्थितवृत्तिर्मोक्षतत्त्वमवबुध्यताम् ।।२७२।।
मोक्षतत्त्वपरिणतपुरुष एवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ।।२७२।। अथ मोक्षकारणमाख्याति — सम्मं विदिदपदत्था संशयविपर्ययानध्यवसायरहितानन्तज्ञानादिस्वभावनिजपरमात्मपदार्थप्रभृतिसमस्तवस्तु- विचारचतुरचित्तचातुर्यप्रकाशमानसातिशयपरमविवेकज्योतिषा सम्यग्विदितपदार्थाः । पुनरपि किंरूपाः। विसयेसु णावसत्ता पञ्चेन्द्रियविषयाधीनरहितत्वेन निजात्मतत्त्वभावनारूपपरमसमाधिसंजातपरमानन्दैक- विचरता (क्रीड़ा करता) होनेसे ‘अयथाचार रहित’ वर्तता हुआ नित्य ज्ञानी हो, वास्तवमें उस सम्पूर्ण श्रामण्यवाले साक्षात् श्रमणको मोक्षतत्व जानना, क्योंकि पहलेके सकल कर्मोंके फल उसने लीलामात्रसे नष्ट कर दिये हैं इसलिये और वह नूतन कर्मफलोंको उत्पन्न नहीं करता इसलिये पुनः प्राणधारणरूप दीनताको प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तनके अभावके कारण शुद्धस्वभावमें १अवस्थित वृत्तिवाला रहता है ।।२७२।।
अन्वयार्थ : — [सम्यग्विदितपदार्थाः ] सम्यक् (यथार्थतया) पदार्थोंको जानते हुए [ये ] जो [बहिस्थमध्यस्थम् ] बहिरंग तथा अंतरंग [उपधिं ] परिग्रहको [त्यक्त्वा ] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ताः ] विषयोंमें आसक्त नहीं हैं, [ते ] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टाः ] ‘शुद्ध’ कहे गये हैं ।।२७३।। १. अवस्थित = स्थिर, [इस संपूर्ण श्रामण्यवाले जीवको अन्यभावरूप परावर्तन (पलटन) नहीं होता, वह
आसक्त नहि विषयो विषे जे, ‘शुद्ध’ भाख्या तेमने. २७३.