Pravachansar (Hindi).

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शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम्
शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ।।२७४।।
यत्तावत्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयौगपद्यप्रवृत्तैकाग््रयलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं तच्च
शुद्धस्यैव यच्च समस्तभूतभवद्भाविव्यतिरेककरम्बितानन्तवस्त्वन्वयात्मकविश्वसामान्यविशेष-
प्रत्यक्षप्रतिभासात्मकं दर्शनं ज्ञानं च तत् शुद्धस्यैव यच्च निःप्रतिघविजृम्भितसहजज्ञानानन्द-
मुद्रितदिव्यस्वभावं निर्वाणं तत् शुद्धस्यैव यश्च टंकोत्कीर्णपरमानन्दावस्थासुस्थितात्मस्व-
भावोपलम्भगम्भीरो भगवान् सिद्धः स शुद्ध एव अलं वाग्विस्तरेण, सर्वमनोरथस्थानस्य
मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमंगांगिभावपरिणतभाव्यभावकभावत्वात् प्रत्यस्तमित-
स्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु
।।२७४।।
४९०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शत्रुमित्रादिसमभावपरिणतिरूपं साक्षान्मोक्षकारणं यच्छ्रामण्यम् तत्तावत्त्त्त्त्क स्य सुद्धस्स य शुद्धस्य च
शुद्धोपयोगिन एव सुद्धस्स दंसणं णाणं त्रैलोक्योदरविवरवर्तित्रिकालविषयसमस्तवस्तुगतानन्तधर्मैक-----
समयसामान्यविशेषपरिच्छित्तिसमर्थं यद्दर्शनज्ञानद्वयं तच्छुद्धस्यैव सुद्धस्स य णिव्वाणं अव्याबाधानन्त-
सुखादिगुणाधारभूतं पराधीनरहितत्वेन स्वायत्तं यन्निर्वाणं तच्छुद्धस्यैव सो च्चिय सिद्धो यो
अन्वयार्थ :[शुद्धस्य च ] शुद्ध (-शुद्धोपयोगी) को [श्रामण्यं भणितं ] श्रामण्य
कहा है, [शुद्धस्य च ] और शुद्धको [दर्शनं ज्ञानं ] दर्शन तथा ज्ञान कहा है, [शुद्धस्य च ]
शुद्धके [निर्वाणं ] निर्वाण होता है; [सः एव ] वही (-शुद्ध ही) [सिद्धः ] सिद्ध होता है;
[तस्मै नमः ] उसे नमस्कार हो
।।२७४।।
टीका :प्रथम तो, सम्यग्दर्शन -ज्ञान -चारित्रके युगपद्पनेरूपसे प्रवर्तमान एकाग्रता
जिसका लक्षण है ऐसा जो साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य, ‘शुद्ध के ही होता है; समस्त भूत
वर्तमानभावी व्यतिरेकोंके साथ मिलित (मिश्रित), अनन्य वस्तुओंका अन्वयात्मक जो विश्व
उसके (१) सामान्य और (२) विशेषके प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप जो (१) दर्शन और (२)
ज्ञान वे ‘शुद्ध’ के ही होते हैं; निर्विघ्न
खिले हुए सहज ज्ञानानन्दकी मुद्रावाला (-स्वाभाविक
ज्ञान और आनन्दकी छापवाला) दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा जो निर्वाण, वह ‘शुद्ध’ के
ही होता है; और टंकोत्कीर्ण परमानन्द
अवस्थारूपसे सुस्थित आत्मस्वभावकी उपलब्धिसे
गंभीर ऐसे जो भगवान सिद्ध, वे ‘शुद्ध’ ही होते हैं (अर्थात् शुद्धोपयोगी ही सिद्ध होते हैं ),
वचनविस्तारसे बस हो ! सर्व मनोरथोंके स्थानभूत, मोक्षतत्वके साधनतत्वरूप, ‘शुद्ध’को,
जिसमें परस्पर अंगअंगीरूपसे परिणमित
भावकभाव्यताके कारण स्वपरका विभाग अस्त
१. भावक (भावनमस्कार करनेवाला) वह अंग (अंश) है और भाव्य (भावनमस्कार करने योग्य पदार्थ)
वह अंगी (अंशी) है, इसलिये इस भावनमस्कारमें भावक तथा भाव्य स्वयं ही है ऐसा नहीं है कि
भावक स्वयं हो और भाव्य पर हो