Pravachansar (Hindi).

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त्ववत् ४ अस्तित्वनास्तित्वनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तराल-
वर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् क्रमतः स्वपरद्रव्यक्षेत्र-
कालभावैरस्तित्वनास्तित्ववत् ५ अवक्तव्यनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुण-
कार्मुकांतरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्त नविशिखवत् युगपत्स्वपर-
द्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्त व्यम् ६ अस्तित्वावक्तव्यनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थ-
लक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहिता-
प्रमाणेन च परीक्षा क्रियते तद्यथाएतावत् शुद्धनिश्चयनयेन निरुपाधिस्फ टिकवत्समस्तरागादि-
विकल्पोपाधिरहितम् तदेवाशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फ टिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम्
शुद्धसद्भूतव्यवहारनयेन शुद्धस्पर्शरसगंंंंंधवर्णानामाधारभूतपुद्गद्गद्गद्गद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधार-
४९४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
उसीप्रकार आत्मा नास्तित्वनयसे परचतुष्टयसे नास्तित्ववाला है ) ४.
आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्वनयसे क्रमशः स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावसे अस्तित्व
नास्तित्ववाला है; लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुषके मध्यमें स्थित तथा डोरी और
धनुषके मध्यमें नहीं स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए तथा संधान अवस्थामें न रहे हुए और
लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
(जैसे पहलेका बाण क्रमशः
स्वचतुष्टयकी तथा परचतुष्टयकी अपेक्षासे लोहमयादि और अलोहमयादि है, उसीप्रकार आत्मा
अस्तित्व
नास्तित्वनयसे क्रमशः स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षासे अस्तित्ववाला और
नास्तित्ववाला है ) ५.
आत्मद्रव्य अव्यक्तव्यनयसे युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावसे अवक्तव्य है;
लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुषके मध्यमें स्थित तथा डोरी और धनुषके मध्यमें
नहीं स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए तथा संधान अवस्थामें न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा
अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेकी बाणकी भाँति
(जैसे पहलेका बाण युगपत् स्वचतुष्टयकी और
परचतुष्टयकी अपेक्षासे युगपत् लोहमयादि तथा अलोहमयादि होनेसे अवक्तव्य है, उसीप्रकार
आत्मा अवक्तव्यनयसे युगपत् स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षासे अवक्तव्य है
) ६.
आत्मद्रव्य अस्तित्वअवक्तव्य नयसे स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावसे तथा युगपत्
स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावसे अस्तित्ववालाअवक्तव्य है; (स्वचतुष्टयसे) लोहमय, डोरी
और धनुषके मध्यमें स्थित, संधान अवस्थामें रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे तथा (युगपत् स्व-
परचतुष्टसे) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुषके मध्यमें स्थित तथा डोरी और धनुषके
मध्यमें नहीं स्थित, संधान अवस्थाएं रहे हुए तथा संधान अवस्थामें रहे हुए और लक्ष्योन्मुख
तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहलेके बाणकी भाँति
[जैसे पहलेका बाण (१) स्वचतुष्टयसे तथा
(२) एक ही साथ स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे (१) लोहमयादि तथा (२) अवक्तव्य है,