२६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन्, शुद्धानन्तशक्तिज्ञान-
विपरिणमनस्वभावेन साधकतमत्वात् करणत्वमनुबिभ्राणः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमन-
स्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधानः, शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनसमये
पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्रुवत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददानः,
शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः, स्वयमेव
षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवा-
विर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्व-
शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः, स्वयमेव
षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवा-
विर्भूतत्वाद्वा स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्व-
कथम् । सयमेव निश्चयेन स्वयमेवेति । तथाहि — अभिन्नकारकचिदानन्दैकचैतन्यस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात्
कर्ता भवति । नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । शुद्धचैतन्यस्वभावेन
साधकतमत्वात्करणकारकं भवति । निर्विकारपरमानन्दैकपरिणतिलक्षणेन शुद्धात्मभावरूपकर्मणा
अनन्तशक्तियुक्त ज्ञायक स्वभावके कारण स्वतंत्र होनेसे जिसने कर्तृत्वके अधिकारको ग्रहण
किया है ऐसा, (२) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं
ही प्राप्य होनेसे ( – स्वयं ही प्राप्त होता होनेसे) कर्मत्वका अनुभव करता हुआ, (३) शुद्ध
किया है ऐसा, (२) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं
ही प्राप्य होनेसे ( – स्वयं ही प्राप्त होता होनेसे) कर्मत्वका अनुभव करता हुआ, (३) शुद्ध
अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावसे स्वयं ही साधकतम (-उत्कृष्ट साधन)
होनेसे करणताको धारण करता हुआ, (४) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके
स्वभावके कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे (अर्थात् कर्म स्वयंको ही देनेमें आता
होनेसे) सम्प्रदानताको धारण करता हुआ, (५) शुद्ध अनन्तशक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित
होनेके समय पूर्वमें प्रवर्तमान १विकलज्ञानस्वभावका नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वयं
होनेसे करणताको धारण करता हुआ, (४) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके
स्वभावके कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होनेसे (अर्थात् कर्म स्वयंको ही देनेमें आता
होनेसे) सम्प्रदानताको धारण करता हुआ, (५) शुद्ध अनन्तशक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित
होनेके समय पूर्वमें प्रवर्तमान १विकलज्ञानस्वभावका नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वयं
ही ध्रुवताका अवलम्बन करनेसे अपादानको धारण करता हुआ, और (६) शुद्ध
अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता
को आत्मसात् करता हुआ — (इस प्रकार) स्वयमेव छह कारकरूप होनेसे अथवा उत्पत्ति –
अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूपसे परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता
को आत्मसात् करता हुआ — (इस प्रकार) स्वयमेव छह कारकरूप होनेसे अथवा उत्पत्ति –
अपेक्षासे २द्रव्य -भावभेदसे भिन्न घातिकर्मोंको दूर करके स्वयमेव आविर्भूत होनेसे, ‘स्वयंभू’
कहलाता है ।
यहाँ यह कहा गया है कि — निश्चयसे परके साथ आत्माका कारकताका सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके लिये सामग्री ( – बाह्य साधन) ढूँढनेकी व्यग्रतासे जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं । १. विकलज्ञान = अपूर्ण (मति श्रुतादि ) ज्ञान । २. द्रव्य -भावभेदसे भिन्न घातिकर्म = द्रव्य और भावके भेदसे घातिकर्म दो प्रकारके हैं, द्रव्यघातिकर्म और
भावघातिकर्म ।