अथ स्वायंभुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथंचिदुत्पाद- व्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति —
केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भावार्थः ।।१६।। एवं सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। अथास्य भगवतो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनानित्यत्वमुपदिशति — भंगविहूणो य भवो भङ्ग- विहीनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयमरूपशुद्धोपयोगेनोत्पन्नो योऽसौ भवः केवलज्ञानोत्पादः । स किंविशिष्टः । भङ्गविहिनो विनाशरहितः । संभवपरिवज्जिदो विणासो त्ति संभवपरिवर्जितो विनाश इति । योऽसौ मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपसंसारपर्यायस्य विनाशः । स सहायता नहीं कर सकती । इसलिये केवलज्ञान प्राप्तिके इच्छुक आत्माको बाह्य सामग्रीकी अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है । शुद्धोपयोगमें लीन आत्मा स्वयं ही छह कारकरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है । वह आत्मा स्वयं अनन्तशक्तिवान ज्ञायकस्वभावसे स्वतन्त्र है इसलिए स्वयं ही कर्ता है; स्वयं अनन्तशक्तिवाले केवलज्ञानको प्राप्त करनेसे केवलज्ञान कर्म है, अथवा केवलज्ञानसे स्वयं अभिन्न होनेसे आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्त शक्तिवाले परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधनसे केवलज्ञानको प्रगट करता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही करण है; अपनेको ही केवलज्ञान देता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपनेमेंसे मति श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये और स्वयं सहज ज्ञान स्वभावके द्वारा ध्रुव रहता है इसलिये स्वयं ही अपादान है, अपनेमें ही अर्थात् अपने ही आधारसे केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये स्वयं ही अधिकरण है । इसप्रकार स्वयं छह कारकरूप होता है, इसलिये वह ‘स्वयंभू’ कहलाता है । अथवा, अनादिकालसे अति दृढ़ बँधे हुए (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतरायरूप) द्रव्य तथा भाव घातिकर्मोंको नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ अर्थात् किसीकी सहायताके बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ इसलिये ‘स्वयंभू’ कहलाता है ।।१६।।
अब इस स्वयंभूके शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् (कोई प्रकारसे) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्तताका विचार करते हैं : –
व्ययहीन छे उत्पाद ने उत्पादहीन विनाश छे, तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे.१७.