भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि ।
विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ।।१७।।
अस्य खल्वात्मनः शुद्धोपयोगप्रसादात् शुद्धात्मस्वभावेन यो भवः स पुनस्तेन रूपेण
प्रलयाभावाद्भंगविहीनः । यस्त्वशुद्धात्मस्वभावेन विनाशः स पुनरुत्पादाभावात्संभवपरिवर्जितः ।
अतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्य न विप्रतिषिध्यते,
भंगरहितोत्पादेन संभववर्जितविनाशेन तद्द्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात् ।।१७।।
किंविशिष्टः । संभवविहीनः निर्विकारात्मतत्त्वविलक्षणरागादिपरिणामाभावादुत्पत्तिरहितः । तस्माज्ज्ञायते
तस्यैव भगवतः सिद्धस्वरूपतो द्रव्यार्थिकनयेन विनाशो नास्ति । विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभव-
णाससमवाओ विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः । तस्यैव भगवतः पर्यायार्थिकनयेन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
२९
अन्वयार्थ : — [भङ्गविहिनः च भवः ] उसके (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त आत्माके)
विनाश रहित उत्पाद है, और [संभवपरिवर्जितः विनाशः हि ] उत्पाद रहित विनाश है । [तस्य
एव पुनः ] उसके ही फि र [स्थितिसंभवनाशसमवायः विद्यते ] स्थिति, उत्पाद और विनाशका
समवाय मिलाप, एकत्रपना विद्यमान है ।।१७।।
टीका : — वास्तवमें इस (शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त) आत्माके शुद्धोपयोगके प्रसादसे
हुआ जो शुद्धात्मस्वभावसे (शुद्धात्मस्वभावरूपसे) उत्पाद है वह, पुनः उसरूपसे प्रलयका
अभाव होनेसे विनाश रहित है; और (उस आत्माके शुद्धोपयोगके प्रसादसे हुआ) जो
अशुद्धात्मस्वभावसे विनाश है वह पुनः उत्पत्तिका अभाव होनेसे, उत्पाद रहित है । इससे (यह
कहा है कि) उस आत्माके सिद्धरूपसे अविनाशीपन है । ऐसा होने पर भी आत्माके उत्पाद,
व्यय और ध्रौव्यका समवाय विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाश रहित उत्पादके साथ,
उत्पाद रहित विनाशके साथ और उन दोनोंके आधारभूत द्रव्यके साथ समवेत (तन्मयतासे युक्त
-एकमेक) है ।
भावार्थ : — स्वयंभू सर्वज्ञ भगवानके जो शुद्धात्म स्वभाव उत्पन्न हुआ वह कभी नष्ट
नहीं होता, इसलिये उनके विनाशरहित उत्पाद है; और अनादि अविद्या जनित विभाव परिणाम
एक बार सर्वथा नाशको प्राप्त होनेके बाद फि र कभी उत्पन्न नहीं होते, इसलिये उनके उत्पाद
रहित विनाश है । इसप्रकार यहाँ यह कहा है कि वे सिद्धरूपसे अविनाशी है । इसप्रकार
अविनाशी होनेपर भी वे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्त हैं; क्योंकि शुद्ध पर्यायकी अपेक्षासे उनके
उत्पाद है, अशुद्ध पर्यायकी अपेक्षासे व्यय है और उन दोनोंके आधारभूत आत्मत्वकी अपेक्षासे
ध्रौव्य है ।।१७।।