निश्चलानुभूतिलक्षणस्य संसारावसानोत्पन्नकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशो भवति तथैव केवल-
ज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन
ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति । अथवा यथा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि
परिच्छित्त्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति । षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यपेक्षया वा भङ्गत्रयमव-
बोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ।।१८।। एवं सिद्धजीवे द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि विवक्षितपर्यायेणोत्पाद-
व्ययध्रौव्यस्थापनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । अथ तं पूर्वोक्तसर्वज्ञं ये मन्यन्ते ते सम्यग्दृष्टयो
भवन्ति, परम्परया मोक्षं च लभन्त इति प्रतिपादयति —
१तं सव्वट्ठवरिट्ठं इट्ठं अमरासुरप्पहाणेहिं ।
ये सद्दहंति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ।।“१।।
तं सव्वट्ठवरिट्ठं तं सर्वार्थवरिष्ठं इट्ठं इष्टमभिमतं । कैः । अमरासुरप्पहाणेहिं अमरासुरप्रधानैः । ये
सद्दहंति ये श्रद्दधति रोचन्ते जीवा भव्यजीवाः । तेसिं तेषाम् । दुक्खाणि वीतरागपारमार्थिक-
सुखविलक्षणानि दुःखानि । खीयंति विनाशं गच्छन्ति, इति सूत्रार्थः ।।“
“
“
“
“
१।। एवं
केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्ध्र्रौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । अतः शुद्धात्मनोऽप्युत्पा-
दादित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ।।१८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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पर्यायसे दोनोंमें (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति -विनाशको प्राप्त न होनेसे ध्रौव्यत्व दिखाई
देता है । इसप्रकार सर्व द्रव्योंके किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी
पर्यायसे ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्माके
भी द्रव्यका लक्षणभूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है ।
भावार्थ : — द्रव्यका लक्षण अस्तित्व है और अस्तित्व उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यरूप है ।
इसलिये किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्यत्व प्रत्येक
पदार्थके होता है ।
प्रश्न : — ‘द्रव्यका अस्तित्व उत्पादादिक तीनोंसे क्यों कहा है ? एकमात्र ध्रौव्यसे ही
कहना चाहिये; क्योंकि जो ध्रुव रहता है वह सदा बना रह सकता है ?’
उत्तर : — यदि पदार्थ ध्रुव ही हो तो मिट्टी, सोना, दूध इत्यादि समस्त पदार्थ एक ही
सामान्य आकारसे रहना चाहिये; और घड़ा, कुंडल, दही इत्यादि भेद कभी न होना चाहिये ।
किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् भेद तो अवश्य दिखाई देते हैं । इसलिये पदार्थ सर्वथा ध्रुव न
रहकर किसी पर्यायसे उत्पन्न और किसी पर्यायसे नष्ट भी होते हैं । यदि ऐसा न माना जाये
तो संसारका ही लोप हो जाये ।
१. ऐसी जो जो गाथायें श्री अमृतचंद्राचार्यविरचित तत्त्वप्रदीपिका टीकामें नहीं लेकिन श्री जयसेनाचार्यदेव
विरचित तात्पर्यवृत्ति टीकामें है उन गाथाओंके अंतमें (“) करके उन गाथाओंको अलग नंबर दिये है।