ज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन
ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति । अथवा यथा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि
तं सव्वट्ठवरिट्ठं तं सर्वार्थवरिष्ठं इट्ठं इष्टमभिमतं । कैः । अमरासुरप्पहाणेहिं अमरासुरप्रधानैः । ये सद्दहंति ये श्रद्दधति रोचन्ते जीवा भव्यजीवाः । तेसिं तेषाम् । दुक्खाणि वीतरागपारमार्थिक- सुखविलक्षणानि दुःखानि । खीयंति विनाशं गच्छन्ति, इति सूत्रार्थः ।।“ “ “ “ “
पर्यायसे दोनोंमें (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति -विनाशको प्राप्त न होनेसे ध्रौव्यत्व दिखाई देता है । इसप्रकार सर्व द्रव्योंके किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्माके भी द्रव्यका लक्षणभूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है ।
भावार्थ : — द्रव्यका लक्षण अस्तित्व है और अस्तित्व उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यरूप है । इसलिये किसी पर्यायसे उत्पाद, किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रौव्यत्व प्रत्येक पदार्थके होता है ।
प्रश्न : — ‘द्रव्यका अस्तित्व उत्पादादिक तीनोंसे क्यों कहा है ? एकमात्र ध्रौव्यसे ही कहना चाहिये; क्योंकि जो ध्रुव रहता है वह सदा बना रह सकता है ?’
उत्तर : — यदि पदार्थ ध्रुव ही हो तो मिट्टी, सोना, दूध इत्यादि समस्त पदार्थ एक ही सामान्य आकारसे रहना चाहिये; और घड़ा, कुंडल, दही इत्यादि भेद कभी न होना चाहिये । किन्तु ऐसा नहीं होता अर्थात् भेद तो अवश्य दिखाई देते हैं । इसलिये पदार्थ सर्वथा ध्रुव न रहकर किसी पर्यायसे उत्पन्न और किसी पर्यायसे नष्ट भी होते हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो संसारका ही लोप हो जाये । १. ऐसी जो जो गाथायें श्री अमृतचंद्राचार्यविरचित तत्त्वप्रदीपिका टीकामें नहीं लेकिन श्री जयसेनाचार्यदेव