अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियैर्विना ज्ञानानन्दाविति
संदेहमुदस्यति —
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो ।
जादो अदिंदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ।।१९।।
निर्दोषिपरमात्मश्रद्धानान्मोक्षो भवतीति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता ।। अथास्यात्मनो
निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणशुद्धोपयोगप्रभावात्सर्वज्ञत्वे सतीन्द्रियैर्विना कथं ज्ञानानन्दाविति पृष्टे प्रत्युत्तरं
ददाति — पक्खीणघादिकम्मो ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयस्वरूपपरमात्मद्रव्यभावनालक्षणशुद्धोपयोगबलेन प्रक्षीण-
घातिकर्मा सन् । अणंतवरवीरिओ अनन्तवरवीर्यः । पुनरपि किंविशिष्टः । अहियतेजो अधिकतेजाः । अत्र
तेजः शब्देन केवलज्ञानदर्शनद्वयं ग्राह्यम् । जादो सो स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा जातः संजातः । कथंभूतः ।
अणिंदियो अनिन्द्रिय इन्द्रियविषयव्यापाररहितः । अनिन्द्रियः सन् किं करोति । णाणं सोक्खं च परिणमदि
केवलज्ञानमनन्तसौख्यं च परिणमतीति । तथाहि — अनेन व्याख्यानेन किमुक्तं भवति । आत्मा
३२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय है, इसलिये मुक्त आत्माके भी
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य अवश्य होते हैं । यदि स्थूलतासे देखा जाये तो सिद्ध पर्यायका उत्पाद
और संसार पर्यायका व्यय हुआ तथा आत्मत्व ध्रुव बना रहा । इस अपेक्षासे मुक्त
आत्माके भी उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य होता है । अथवा मुक्त आत्माका ज्ञान ज्ञेय पदार्थोंके
आकाररूप हुआ करता है इसलिये समस्त ज्ञेय पदार्थोमें जिस जिस प्रकारसे उत्पादादिक
होता है उस -उस प्रकारसे ज्ञानमें उत्पादादिक होता रहता है, इसलिये मुक्त आत्माके समय
समय पर उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य होता है । अथवा अधिक सूक्ष्मतासे देखा जाये तो,
अगुरुलघुगुणमें होनेवाली षटगुनी हानी वृद्धिके कारण मुक्त आत्माको समय समय पर
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय वर्तता है । यहाँ जैसे सिद्धभगवानके उत्पादादि कहे हैं उसीप्रकार
केवली भगवानके भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये ।।१८।।
अब, शुद्धोपयोगके प्रभावसे स्वयंभू हुए इस (पूर्वोक्त) आत्माके इन्द्रियोंके बिना
ज्ञान और आनन्द कैसे होता है ? ऐसे संदेहका निवारण करते हैं : —
प्रक्षीणघातिकर्म, अनहदवीर्य, अधिकप्रकाश ने
इन्द्रिय -अतीत थयेल आत्मा ज्ञानसौख्ये परिणमे.१९.