Pravachansar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
३३
प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः
जातोऽतीन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमति ।।१९।।
अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, क्षायोपशमिकज्ञान-
दर्शनासंपृक्तत्वादतीन्द्रियो भूतः सन्निखिलान्तरायक्षयादनन्तवरवीर्यः, कृत्स्नज्ञानदर्शनावरण-
प्रलयादधिक के वलज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः, समस्तमोहनीयाभावादत्यन्तनिर्विकारशुद्धचैतन्य-
स्वभावमात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकु लत्वलक्षणं सौख्यं च
भूत्वा परिणमते
एवमात्मनो ज्ञानानन्दौ स्वभाव एव स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियै-
र्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौ संभवतः ।।१९।।
तावन्निश्चयेनानन्तज्ञानसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेण संसारावस्थायां कर्मप्रच्छादितज्ञानसुखः सन्
पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति
यदा पुनर्निर्विकल्पस्वसंवित्तिबलेन कर्माभावो
भवति तदा क्षयोपशमाभावादिन्द्रियाणि न सन्ति स्वकीयातीन्द्रियज्ञानं सुखं चानुभवति ततः स्थितं
इन्द्रियाभावेऽपि स्वकीयानन्तज्ञानं सुखं चानुभवति तदपि कस्मात् स्वभावस्य परापेक्षा
नास्तीत्यभिप्रायः ।।१९।। अथातीन्द्रियत्वादेव केवलिनः शरीराधारोद्भूतं भोजनादिसुखं क्षुधादिदुःखं च
नास्तीति विचारयतिसोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि सुखं वा पुनर्दुःखं वा केवलज्ञानिनो
१. अधिक = उत्कृष्ट; असाधारण; अत्यन्त २. अनपेक्ष = स्वतंत्र; उदासीन; अपेक्षा रहित
પ્ર. ૫
अन्वयार्थ :[प्रक्षीणघातिकर्मा ] जिसके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं, [अतीन्द्रियः
जातः ] जो अतीन्द्रिय हो गया है, [अनन्तवरवीर्यः ] अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है और
[अधिकतेजाः ]
अधिक जिसका (केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप) तेज है [सः ] ऐसा वह
(स्वयंभू आत्मा) [ज्ञानं सौख्यं च ] ज्ञान और सुखरूप [परिणमति ] परिणमन करता है ।।१९।।
टीका :शुद्धोपयोगके सामर्थ्यसे जिसके घातिकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं,
क्षायोपशमिक ज्ञान -दर्शनके साथ असंपृक्त (संपर्क रहित) होनेसे जो अतीन्द्रिय हो गया है,
समस्त अन्तरायका क्षय होनेसे अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और
दर्शनावरणका प्रलय हो जानेसे अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है
ऐसा यह (स्वयंभू) आत्मा, समस्त मोहनीयके अभावके कारण अत्यंत निर्विकार शुद्ध चैतन्य
स्वभाववाले आत्माका (अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे आत्माका )
अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपरप्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर
परिणमित होता है
इस प्रकार आत्माका, ज्ञान और आनन्द स्वभाव ही है और स्वभाव परसे
अनपेक्ष होनेके कारण इन्द्रियोंके बिना भी आत्माके ज्ञान और आनन्द होता है