न कथमपीति । अयमत्र भावार्थः ---ये केचनात्मानमङ्गुष्ठपर्वमात्रं, श्यामाकतण्डुलमात्रं,
भावार्थ : — आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्रसे कम माना जाये तो आत्माके क्षेत्रसे बाहर वर्तनेवाला ज्ञान चेतनद्रव्यके साथ सम्बन्ध न होनेसे अचेतन गुण जैसा ही होगा, इसलिये वह जाननेका काम नहीं कर सकेगा, जैसे कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इत्यादि अचेतन गुण जाननेका काम नहीं कर सकते । यदि आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्र से अधिक माना जाये तो ज्ञानके क्षेत्रसे बाहर वर्तनेवाला ज्ञानशून्य आत्मा ज्ञानके बिना जाननेका काम नहीं क र सकेगा, जैसे ज्ञानशून्य घट, पट इत्यादि पदार्थ जाननेका काम नहीं कर सकते । इसलिये आत्मा न तो ज्ञानसे हीन है और न अधिक है, किन्तु ज्ञान जितना ही है ।।२४ -२५।।
अन्वयार्थ : — [जिनवृषभः ] जिनवर [सर्वगतः ] सर्वगत हैं [च ] और [जगति ] जगतके [सर्वे अपि अर्थाः ] सर्व पदार्थ [तद्गताः ] जिनवरगत (जिनवरमें प्राप्त) हैं; [जिनः ज्ञानमयत्वात् ] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च ] और [ते ] वे सब पदार्थ [विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय होनेसे [तस्य ] जिनके विषय [भणिताः ] कहे गये हैं ।।२६।।
छे सर्वगत जिनवर अने सौ अर्थ जिनवरप्राप्त छे, जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होइने.२६.