Pravachansar (Hindi). Gatha: 26.

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अथात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति
सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा
णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ।।२६।।
सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः
ज्ञानमयत्वाच्च जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ।।२६।।
वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि अधिको वा ज्ञानात्सकाशात्तर्हि यथोष्णगुणाभावेऽग्निः शीतलो
भवन्सन् दहनक्रियां प्रत्यसमर्थो भवति तथा ज्ञानगुणाभावे सत्यात्माप्यचेतनो भवन्सन् कथं जानाति,
न कथमपीति
अयमत्र भावार्थः ---ये केचनात्मानमङ्गुष्ठपर्वमात्रं, श्यामाकतण्डुलमात्रं,
वटककणिकादिमात्रं वा मन्यन्ते ते निषिद्धाः येऽपि समुद्घातसप्तकं विहाय देहादधिकं मन्यन्ते
तेऽपि निराकृता इति ।।२५।। अथ यथा ज्ञानं पूर्वं सर्वगतमुक्तं तथैव सर्वगतज्ञानापेक्षया भगवानपि
सर्वगतो भवतीत्यावेदयति ---सव्वगदो सर्वगतो भवति स कः कर्ता जिणवसहो जिनवृषभः
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
४३
भावार्थ :आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्रसे कम माना जाये तो आत्माके क्षेत्रसे बाहर
वर्तनेवाला ज्ञान चेतनद्रव्यके साथ सम्बन्ध न होनेसे अचेतन गुण जैसा ही होगा, इसलिये
वह जाननेका काम नहीं कर सकेगा, जैसे कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इत्यादि अचेतन गुण
जाननेका काम नहीं कर सकते
यदि आत्माका क्षेत्र ज्ञानके क्षेत्र से अधिक माना जाये तो
ज्ञानके क्षेत्रसे बाहर वर्तनेवाला ज्ञानशून्य आत्मा ज्ञानके बिना जाननेका काम नहीं क र
सकेगा, जैसे ज्ञानशून्य घट, पट इत्यादि पदार्थ जाननेका काम नहीं कर सकते
इसलिये
आत्मा न तो ज्ञानसे हीन है और न अधिक है, किन्तु ज्ञान जितना ही है ।।२४ -२५।।
अब, ज्ञानकी भाँति आत्माका भी सर्वगतत्व न्यायसिद्ध है ऐसा कहते हैं :
अन्वयार्थ :[जिनवृषभः ] जिनवर [सर्वगतः ] सर्वगत हैं [च ] और [जगति ]
जगतके [सर्वे अपि अर्थाः ] सर्व पदार्थ [तद्गताः ] जिनवरगत (जिनवरमें प्राप्त) हैं;
[जिनः ज्ञानमयत्वात् ] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च ] और [ते ] वे सब पदार्थ
[विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय होनेसे [तस्य ] जिनके विषय [भणिताः ] कहे गये हैं
।।२६।।
छे सर्वगत जिनवर अने सौ अर्थ जिनवरप्राप्त छे,
जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होइने
.२६.