अर्थाकारा अप्यर्था भण्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।।२६।। अथ ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति — णाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्मा भवतीति मतं सम्मतम् । कस्मात् । वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र जाता है कि भगवान सर्वगत हैं । और १नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारोंको आत्मस्थ (आत्मामें रहे हुए) देखकर ऐसा उपचारसे कहा जाता है; कि ‘सर्व पदार्थ आत्मगत (आत्मामें) हैं ’; परन्तु परमार्थतः उनका एक दूसरेमें गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ठ (अर्थात् अपने- अपने स्वरूपमें निश्चल अवस्थित) हैं ।
यही क्रम ज्ञानमें भी निश्चित करना चाहिये । (अर्थात् आत्मा और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें निश्चय -व्यवहारसे कहा गया है, उसीप्रकार ज्ञान और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें भी समझना चाहिए) ।।२६।।
गाथा : २७ अन्वयार्थ : — [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है [इति मतं ] ऐसा जिनदेवका मत है । [आत्मानं विना ] आत्माके बिना (अन्य किसी द्रव्यमें) [ज्ञानं न वर्तते ] ज्ञान नहीं होता, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है; [आत्मा ] और आत्मा [ज्ञानं वा ] (ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा ] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है ।।२७।। १. नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों = ज्ञानमें होनेवाले (ज्ञानकी अवस्थारूप) ज्ञेयाकारों । (इन ज्ञेयाकारोंको ज्ञानाकार भी