अथात्मज्ञानयोरेकत्वान्यत्वं चिन्तयति —
णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ।
तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।२७।।
ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम् ।
तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ।।२७।।
अर्थाकारा अप्यर्था भण्यन्ते । ते च ज्ञाने तिष्ठन्तीत्युच्यमाने दोषो नास्तीत्यभिप्रायः ।।२६।। अथ
ज्ञानमात्मा भवति, आत्मा तु ज्ञानं सुखादिकं वा भवतीति प्रतिपादयति — णाणं अप्प त्ति मदं ज्ञानमात्मा
भवतीति मतं सम्मतम् । कस्मात् । वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं ज्ञानं कर्तृ विनात्मानं जीवमन्यत्र
१. नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों = ज्ञानमें होनेवाले (ज्ञानकी अवस्थारूप) ज्ञेयाकारों । (इन ज्ञेयाकारोंको ज्ञानाकार भी
कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान इन ज्ञेयाकाररूप परिणमित होते हैं । यह ज्ञेयाकार नैमित्तिक हैं और पर पदार्थोंके
द्रव्य -गुण -पर्याय उनके निमित्त हैं । इन ज्ञेयाकारोंको आत्मामें देखकर ‘समस्त पर पदार्थ आत्मामें हैं,
इसप्रकार उपचार किया जाता है । यह बात ३१ वीं गाथामें दर्पणका दृष्टान्त देकर समझाई गई है ।)
छे ज्ञान आत्मा जिनमते; आत्मा विना नहि ज्ञान छे ,
ते कारणे छे ज्ञान जीव, जीव ज्ञान छे वा अन्य छे .२७.
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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जाता है कि भगवान सर्वगत हैं । और १नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारोंको आत्मस्थ (आत्मामें रहे हुए)
देखकर ऐसा उपचारसे कहा जाता है; कि ‘सर्व पदार्थ आत्मगत (आत्मामें) हैं ’; परन्तु
परमार्थतः उनका एक दूसरेमें गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ठ (अर्थात् अपने-
अपने स्वरूपमें निश्चल अवस्थित) हैं ।
यही क्रम ज्ञानमें भी निश्चित करना चाहिये । (अर्थात् आत्मा और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें
निश्चय -व्यवहारसे कहा गया है, उसीप्रकार ज्ञान और ज्ञेयोंके सम्बन्धमें भी समझना
चाहिए) ।।२६।।
अब, आत्मा और ज्ञानके एकत्व -अन्यत्वका विचार करते हैं : —
गाथा : २७ अन्वयार्थ : — [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है [इति मतं ] ऐसा
जिनदेवका मत है । [आत्मानं विना ] आत्माके बिना (अन्य किसी द्रव्यमें) [ज्ञानं न वर्तते ]
ज्ञान नहीं होता, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं आत्मा ] ज्ञान आत्मा है; [आत्मा ] और आत्मा [ज्ञानं
वा ] (ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा ] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है ।।२७।।