Pravachansar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
४९
न प्रविष्टो नाविष्टो ज्ञानी ज्ञेयेषु रूपमिव चक्षुः
जानाति पश्यति नियतमक्षातीतो जगदशेषम् ।।२९।।

यथा हि चक्षू रूपिद्रव्याणि स्वप्रदेशैरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात्कुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति पश्यति च, एवमात्माप्यक्षातीतत्वात्प्राप्यकारिताविचारगोचरदूरतामवाप्तो ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्टः शक्तिवैचित्र्यवशतो वस्तुवर्तिनः समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव क वलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च एवमस्य विचित्रशक्ति योगिनो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति ।।२९।। जगदशेषमिति तथा हि ---यथा लोचनं कर्तृ रूपिद्रव्याणि यद्यपि निश्चयेन न स्पृशति तथापि व्यवहारेण स्पृशतीति प्रतिभाति लोके तथायमात्मा मिथ्यात्वरागाद्यास्रवाणामात्मनश्च संबन्धि यत्केवलज्ञानात्पूर्वं विशिष्टभेदज्ञानं तेनोत्पन्नं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं तेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपदार्थान्निश्चयेनास्पृशन्नपि व्यवहारेण स्पृशति, तथा स्पृशन्निव ज्ञानेन जानाति दर्शनेन पश्यति च कथंभूतस्सन् अतीन्द्रियसुखास्वादपरिणतः सन्नक्षातीत इति ततो ज्ञायते निश्चयेनाप्रवेश इव व्यवहारेण ज्ञेयपदार्थेषु

अन्वयार्थ :[चक्षुः रूपं इव ] जैसे चक्षु रूपको (ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट रहकर तथा अप्रविष्ट न रहकर जानती -देखती है) उसीप्रकार [ज्ञानी ] आत्मा [अक्षातीतः ] इन्द्रियातीत होता हुआ [अशेषं जगत् ] अशेष जगतको (-समस्त लोकालोकको) [ज्ञेयेषु ] ज्ञेयोमां [न प्रविष्टः ] अप्रविष्ट रहकर [न अविष्टः ] तथा अप्रविष्ट न रहकर [नियतं ] निरन्तर [जानाति पश्यति ] जानता -देखता है ।।२९।।

टीका :जिसप्रकार चक्षु रूपी द्रव्योंको स्वप्रदेशोंके द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता -देखता है) तथा ज्ञेय आकारोंको आत्मसात् (-निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता -देखता है; इसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतताके कारण प्राप्यकारिताकी विचारगोचरतासे दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओंको स्वप्रदेशोंसे अस्पर्श करता है, इसलिये अप्रविष्ट रहकर (जानता -देखता है) तथा शक्ति वैचित्र्यके कारण वस्तुमें वर्तते समस्त ज्ञेयाकारोंको मानों मूलमेंसे उखाड़कर ग्रास कर लेनेसे अप्रविष्ट न रहकर जानता- देखता है इसप्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थोंमें अप्रवेशकी भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है

भावार्थ :यद्यपि आँख अपने प्रदेशोंसे रूपी पदार्थोंको स्पर्श नहीं करती इसलिये वह निश्चयसे ज्ञेयोंमें अप्रविष्ट है तथापि वह रूपी पदार्थोंको जानती -देखती है, इसलिये व्यवहारसे १. प्राप्यकारिता = ज्ञेय विषयोंको स्पर्श करके ही कार्य कर सकनाजान सकना (इन्द्रियातीत हुए

आत्मामें प्राप्यकारिताके विचारका भी अवकाश नहीं है) પ્ર. ૭